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________________ तपस्वी वारिषेण । [३२५ भानी कलाका परिचय देते हुए श्रेष्ठोके शयनागारमें प्रवेश किया। श्रीषेणके गले का चमकता हुआ हा उपके हाथमें था। हार लेकर वह महलके नीचे उतरा । उसका दुर्भाग्य माज उसके पास ही था। नीचे उतरते हुए राज्य-सैनिकों ने उसे देख लिया। विद्यु ने भी उन्हें देखा था। उसका हृदय किसी अज्ञात भयसे धाक उठा । लेकिन साहस और निर्भयताने उRका साथ दिया, नीचे उतरकर अब वह राज पथपर था। विद्युतने हार चुरा तो लिया लेकिन वह उसकी चमकती हुई प्रभाको नहीं छिप मका । उपके हाथमें चमकते हुए हारको देवकर मैनिक उसे पकड़ने के लिए उसके पछ दौटे। सैनिकों को अपने पीछ दौस्ता देख विद्यत भी अपनी रक्षा के लिए तमातिसे दोहा । भागने में वह सिद्धहम्न था। प्रत्येक मार्ग उसका देखा हुआ था। वह इघर उघासे पक्क' काटना मन को धोखा देता हुआ जन शुन्य स्मशानके पास पहुंचा। उपने को बचाने का माम प्रयत्न किया था। लेकिन आज उपका साग कौशल वकार था, वह अपने को बचा नहीं मा ! मनिक उपके पीछे तीन से दौड़े दर माह थे। उसने साइप करके पीछे की ओर देवा, मानक उसके बिलकुल निकट आ चुके थे। अब वह सैनिकों के हाथ पहनेको हो था-उसका जीवन अब मुरक्षित नहीं था, इमी ममय दैवने उपकी रक्षा की। एक उपाय उसके हाथ लग गया, उसे अनंको बचाने के प्रयत्न में सफलता मिली। पास ही एक वृक्ष के नीचे राजकुमार वारिग योग सावन का रहे थे, उसने उस बहुमूल्य हारको उनके सामने फेंक दिया और स्वयं वे पासके पेड़ोंकी झुरमटमें जा छि।।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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