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________________ श्रद्धालु श्रेणिक बिनसार । [३०१ RasEORNAKAMANARTHAMAARRIAMANISHNAMOKAAMANNAIIMa “मरे महाराज ! एक जैन साधु होकानी निर्दयता दिखकाते हुए तुमेह कुछ सजा नहीं माती ! मुनिके मेषमें यह दुष्कर्म नत्यंत मनुचित है" श्रेणिकने तड़पते हुए मन्त:काणसे यह शब्द कहा। "तू हमारे जैसे कितनोंको इस प्रकार रोक सकेगा! संघमें मेरे जैसे एक नहीं किन्तु असंख्य मुनि पके हैं जो इसी प्रकार मत्स्य. मांय दूग अपनी भाजीविका चलाते है ।" मुनिने उत्तर दिया। राजाका भात्मा मानो कुचल गया। उसकी भांखों के भागे अंधकार छा गया । महावा म्वामी के संघके मुनि ऐमा निर्बल मार्ग प्राण करें यह उसे बहा त्रासदायक प्रसीत हुभा। वह भागे चका : उस आचार भ्रष्टताका श्य बद्द भूल नहीं मका मुनिकी दुर्दशाका विच र कर वह क्षणभर मनमें दुखित होने लगा। थोड़ी तू। पर उसे एक मध्वी मिली, उसके हाथ पैर भट्टावरसे रंगे हुए थे। 38की कगार आँख कृत्रिम ते जसे चरती थीं, वह पान चाबनी हुई रानाके सामने भाका खही हो गई। "तुम मावी हो कि वेश्या ! म, ध्वी के क्या ऐसे शृङ्गार और मलंकार होते हैं ! " ग्लानिपूर्वक जाने पूछा ! ___ सवा खिल खिलाकर हंस पह!-" तुम तो केवल अलंकार और , ही देखते हो । किन्तु यह मेरे दरमें छह सात मासका गर्भ है यह तुम क्या नहीं देखते ?" _ भ्रष्टाच की माक्षत् मृति ! उसकी खिल मिलाने निहुर दामने राजा श्रेणकको दिगमूह बना दिग । यह स्व. है अथक सत्य, इसके निर्णयके पथन ही साध्वी जसी स्त्री बोली--
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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