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________________ सुरुमार सुकुमाल [२७३ MARRIANRAMMINGARAMMARIAHINANDANAHARANIMALINWAMITINARomamave महात्माका चातुर्मास समाप्त हो गया, माज उनके उज्जयिनीसे विहार करने का दिन था। सबेरे चार बजेका समय था। वे पाठ कर रहे ये उनका स्वर भान कुछ ऊंचा हो गया था देवताओंके वैभवका वर्णन था। एक भावाज सुकुमारके कानों तक पहुंची। वह पूर्व स्मृतिके तार झनझना उठे। किसी ने उसे जगा दिया । वह बोळ उठा-" अरे ! मैं आज यह क्या सुन रहा हूं " स्वर कुछ और ऊंचा होगया । पूर्वजन्मकी उसकी स्मृति जागृत हो उठी। यह तो मेरे ही पूर्व वैभव वर्णन है । मरे में क्या था और याज क्या हूं ! वे विकासके दिन किसताह चले गये । वे मुग्वः मम नयां आज मेरे नंतापट पा कुछ मोटी मोठी थाकियां दे ही हैं ना क्या उसी तरह यह भी नष्ट हो जायगा । ज ऊं उनसे दी मालन करूं।" बद उठा-रात्रि कुछ अवशेष थी। शुन्यगतिमे दी महलसे नीचे उन । और सीधे महात्मा के पास चला गया । माज उसके लिये कोई पतिबंध नहीं था ! यदि होता भी तो वह उसे कुचल डालता। उसकी मनोभामना आज अत्यंत प्रबल हो उठी थी। जाकर महात्माको पणाम किया । बोला - " महात्मा ! हा भगे और कहिये मेग वह सम्र ज्य नो गया-यह साम्राज्य मेरा मन कबतक स्थिा रहेगा !" महात्मा बोले -" पुत्र तु टंक समयपर आ गया, बस अब थोड़ा ही समय शेष है : '' मुझे हर्प है । तू आ तो गया । तेरी उम्रके बस भर तीन ही दिन बाकी हैं। तुझे जो कुछ करना हो इतने समयमें ही अपना सब कुछ कर डाल ।
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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