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________________ meromemoryNCHAMKommawMINSNIRMANCHIRAHONERNamunaravan आत्मजयी पार्श्वनाथ। [२३३ कुमारने सरकतासे कहा:-कहिए। मैंने भापका क्या अपमान किया है। तपस्वी नरा जोग्से बोला-देखो, मैं तुमसे बड़ा इं, तपस्वी ई इसलिये तुम्हें मुझे नमस्कार करना चाहिए था । कुमार न्न होकर बोले:-बाबा खाली भेष देखकर ही मैं किसीको नमस्कार नहीं करता, गुण देखकर करता हूं। तपस्वी कोधित म्बरसे बोला:-क्योंजी, क्या मुझमें गुण नहीं है ? देखो ! मैं रातदिन कठिन तप करता हूं और बड़ी२ तकलीफोंको सहता हूं। मैं बड़ा तपम्वी और महात्मा हूं। कुमारने फिर कहा: अज्ञानतासे अपने शरीरको अपने माप दुःख पहुंचाना तप नहीं कहलाता । बड़ी तकलीफें सहन कर लेना भी तप नहीं है। गरीब और निधन लोग तो हमेशा ही कठिनमे कठिन तकलीफें सहन करते हैं। जानवा भी हमेशा सादी गरमी और भूख प्यासको सहते हैं लेकिन वह नर नहीं कहलाता । यह तो मत्म हत्या है। तापसका क्रोध और भी बढ़ गया। वह बोला-देखो, मैं भागके सामने बैठा हुआ कितना कठिन योग साधन करता हूं। कुमार सी तरह फि। बोले:-अ गके सामने बैठना ही तप नहीं है। इसमें तो अनेक जीवोंकी हिंसा ही होती है। बागजी, ज्ञानके विना योग साधन नहीं हो सकता, यह तो केवल ढोंग है। तापस अपने कोषको नहीं रोक सका । वह बोला:-ऐं ! क्या कहा ? मैं योगी नहीं हूं यह सब मेरा ढोंग है ! भागमें नीबकी हिंग होती है ! भरे ! तू क्या कह रहा है, मैं चुपचाप तेरी सब बातें सुन
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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