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________________ mo v ememewanwroewwwseemawwemawwwwwwwwwwwwwww तपस्वी मजकमार। [२०१ अपने तीक्ष्ण पाणों की वर्षासे उसके शस्त्रपहारको विफल कर दिया । भर दोनोंका आपसमें भीषण युद्ध होने लगा। विजयश्रीने कुमास्की ओर अपना हाथ बढ़ाया, अपराजितका प्रभाव प्रतिक्षण क्षीण होने लगा । एकाएक गजकुमारने अपने शस्त्र प्रहारसे घायल कर उसे नीचे गिरा दिया और उसे अपने मजबूत बंधनमें जकड लिया। अपराजितको पकड़कर कुमारने महाराज वासुदेवके सामने उपस्थित किया। अपराजितने विनीत होकर उनका स्वामित्व स्वीकार किया और भविष्यमें उनके विरुद्ध सिर न उठानेकी प्रतिज्ञा की। महाराजने उसे क्षमा प्रदान किया और उसका राज्य उसे सौंप दिया। महारान, अपने पुत्रकी बोग्ता पर अत्यंत मुख थे। उन्होंने उससे इच्छित वर मांगनेको कहा: राजकुमारने कहा-पिताजी ! यदि सचमुच ही आप मुझपर प्रसन्न है तो मुझे इच्छित वा प्रदान कीजिए। मैं चाहता हूं कि मेरी जो इच्छा हो मैं वही रू, राज्यकी ओरसे उसमें कोई वाषा उपस्थित न को नाय । महारान्ने सोचा कि मन और ऐश्वर्यका उपभोगके पतिरिक्त कुमार और क्या कर सकेगा ! पिताके हृदयमें पुत्रके प्रति कोई शंका नहीं थी । इसलिए उन्होंने प्रसन्न होकर उसे इच्छित वर देदिया। यौवन, वैभव, अविकता और प्रभुना इनमें से एक भी पतनके लिए पर्याप्त है, किन्तु जहां चारोंका समुदाय हो वहांके मनर्थका क्या कहना? प्रभुता प्राप्त होनेपर युवक रामपुत्र पजकुमार अपने यौबनके
SR No.010278
Book TitleJain Yuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchandra Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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