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________________ ( ५३ । करते हैं। अपने जीवन को भी व्युत्सर्जन कर देते हैं, परन्तु परोपकार के मार्ग से वे किंचित् मात्र भी विचलित नहीं होने पाते, अतएव वे ही देव कहला सकते है। अनादि काल से पांच भारत वर्ष और पांच ऐरवर्त्त वर्ष क्षेत्रों में दो प्रकार का काल चक्र वर्त्त रहा है, उत्सप्पिणी काल और अवसर्पिणीकाल । प्रत्येक काल दश कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण का होता है, तथा प्रत्येक काल के छः भाग होते हैं; सो दोनों कालों के मिलने से २० कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण का एक कालचक्र होता है । विशेष केवल इतना ही है कि-उत्सर्पिणी काल में प्रिय पदार्थों का प्रादुर्भाव और अप्रिय पदार्थों का शनै २ ह्रास होता जाता है; अन्त में जीवों को पौद्गलिक सुख की पूर्णतया प्राप्ति हो जाती है। . . - इस से विपरीत-भाव अवसर्पिणी काल का माना गया है, जिस में पुद्गल सम्बन्धी सुख का ह्रास होता हुआ शनैः २ जीव परम दुःखमयी अवस्था में हो जाते हैं। इस प्रकार इस लोक मे काल चक्रों का चक्र लगा रहता है। अनादि नियम के अनुकूल प्रत्येक काल चक्र मे २४ तीर्थकर देव १२ चक्रवर्ती नव वलदेव नव वासुदेव और नव ही प्रतिवासुदेव ये महापुरुष उत्पन्न हुआ करते हैं। स्थानाङ्ग सूत्र में तीन प्रकार के उत्तम पुरुषों का विवरण किया गया है । जैसे कि-धर्मोत्तम पुरुष १ भोगोत्तम पुरुष २ और कर्मोत्तम पुरुष ३ । सो धर्मोत्तम पुरुष तो श्रीअर्हन् देव होते हैं, जो धार्मिक क्रियाओं को प्रतिपादन करके सदैव काल जीवों का कल्याण करते रहते हैं। भोगोत्तम पुरुप चक्रवर्ती होते हैं, जिनके समान पौद्गलिक सुख के अनुभव करने वाली अन्य व्यक्तियां उस समय नहीं होतीं। कर्मोत्तम पुरुष राज्य धर्म के नानाप्रकार के नियमों के निर्माता होते है, वे वासुदेव की पदवी को धारण करके फिर साम, दाम, भेद और दण्ड इस प्रकार की नीति की स्थापना करके राज्य-धर्भ को एक सूत्र मे बांधते है । अर्द्ध भारत वर्ष में उनका एक छत्रमय राज्य होता है, क्योंकि-यावत्काल पर्यन्त एक छत्रमय राज्य नहीं होता, तावत्काल पर्यन्त प्रजा सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने के लिये असमर्थता रखती है। अतएव वासुदेवों को कर्मोत्तम पुरुष माना गया है। इस काल के पूर्व जो उत्सर्पिणी काल व्यतीत होचुका है, उसमें निम्न लिखितानुसार २४ तीर्थकर देव हुए है उनके शुभ नाम ये हैं। केवलज्ञानी १, निर्वाणी२,सागर ३, महायश'४, विमल ५,सर्वानुभूति ६, श्रीधर७, दत्ततीर्थकृत् ८, दामोदर ६. सुतेजाः १०, स्वामी ११, मुनिसुव्रत १२, सुमति १३, शिवगति १४, अस्ताग १५, निमीश्वर १६, अनिल १७, यशोधर १८, कृतार्थ १६, जिनेश्वर २० शुद्धमति २२ शिवकर २२ स्यन्दन २३ और संप्रति २४; परंच जो आगामी काल में आनेवाली उत्सर्पिणी में भी २४ तीर्थकर देव होंगे, उनके शुभ नाम
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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