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________________ (४८ ) रस और स्पर्श पुद्गल जन्य होता है जब वह क्षय होगया तव आत्मा निज गुणअमूर्तिक भाव के धारण करने वाला स्वतः ही हो जाता है। जव गोत्र कर्म का क्षय हो गया तव आत्मा " अगुरुलघुत्वं " इस गुण का धारण करने वाला होता है । क्योंकि-ऊंच गोत्र के द्वारा नाना प्रकार के गौरव की प्राप्ति हो जाती है, और नीच गोत्र के द्वारा नाना प्रकार के तिरस्कारों का सामना करना पड़ता है। जव वह कर्म ही क्षय हो गया तव मानापमान भी जाते रहे और जीव "अगुरुलघुत्वं” इस गुण का धारण करने वाला हो गया। क्योंकि-सत्कार से गुरु भाव और तिरस्कार द्वारा लघुता प्राप्त होनी ये दोनों बातें स्वतः ही सिद्ध है । सो सिद्ध भगवंतों की उक्त दशाएं न होने से वे अगुरुलघुत्व गुण वाले कहे जाते हैं। यदि ऐसे कहा जाय कि-जव वे भक्तों द्वारा पूज्य है, और नास्तिकों द्वारा अपूज्य है क्योंकि-आस्तिकों के लिये तो सिद्ध भगवान् उपास्य हैं और नास्तिकों द्वारा उनके अस्तित्वभाव में भी शंका की जाती है तो क्या यह ऊंच और नीच भावों द्वारा गोत्रकर्म का सद्भाव नहीं माना जा सकता ? इस शंका का समाधान यह है कि-गोत्र कर्म की वर्गणाएं परमाणुरूप हैं। अतः वे पुगल-जन्य होने से रूपी भावको धारण करती हैं, जव जीव गोत्र कर्म से युक्त होता है तव वह शरीर के धारण करने वाला होता है। उस समय उक्त कर्म द्वारा उस जीव को ऊंच वा नीच दशा की प्राप्ति होना गोत्र कर्म का फल माना जा सकता है परंच सिद्धों के संग उक्त कर्म के न होने से उक्त व्यवहार नहीं है। इसलिये केवल आस्तिक वा नास्तिकों द्वारा ही उक्त क्रियानों के करने से गोत्रकर्म का सद्भाव नहीं माना जासकता, अतएव " अगुरुलघुत्व” उनका यह गुण सद्भाव में रहता है । और इसी कारण से वे योगी पुरुपों के हृदय में ध्येय रूप से विराजमान रहते हैं। , फिर अन्तराय कर्म के क्षय होजान से अनन्त शक्ति उन में प्रादुर्भूत होगई है। वे अनन्त नान के द्वारा सर्व पदार्थों को हस्तामलकवत् सम्यक्तया जानते और देखते हैं और वे अपने स्वरूप से कदापि स्खलित नहीं होते। इसी कारण से उन्हें चिदानन्दमय कहा जाता है । यदि ऐसे कहा जाय कि जब उनका शरीर ही नहीं है तव उनको “चिन्मयत्व" " अानन्दमयत्व" वा अनन्त सुख के अनुभव करने वाले किस प्रकार कहा जाता है ? इस शंका का समाधान इस प्रकार से किया जा सकता है कि-जिस प्रकार के सुख का अनुभव सिद्ध परमात्मा को होरहा है, वह सुख देवों वा चक्रवर्ती आदि प्रधान मनुष्यों को भी प्राप्त नहीं है। क्योंकि-आत्मिक सुख के सामने पौगलिक सुख की किसी प्रकार से भी तुलना नहीं की जासकती। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश के
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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