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________________ द्वारा उत्पन्न किया गया सुख क्षय रूप होता है, अतः वह वेदनीय कर्म कीसातारूप प्रकृति १५,और असाता रूप प्रकृति १६ उनकी क्षय हो चुकी हैं, इस लिये वे अक्षयात्मिक सुख के अनुभव करने वाले होते हैं। दर्शन मोहनीय १७ और चारित्र मोहनीय कर्म के न होने से वे क्षायिक सम्यक्त्व के धारण करने वाले होते हैं १८ अर्थात् वे परम शुद्ध सर्वथा सम्यक्त्वी हैं। नरकायु १९ तिर्यगायु २० मनुष्याय २१ और देवायु २२ इस प्रकार आयुष्कर्म की चारों प्रकृतियों के क्षय होने से वे निरायु हैं । इस लिये उन्हें शाश्वत कहा जाता है; क्योंकि-श्रायुष्कर्म की अपेक्षा से ही जीव की अशाश्वत दशाएं हो रही हैं । जब यह कर्म सर्वथा निर्मल हो गया तव आत्मा अमर हो जाता है। अतः वे आयुष्कर्म से भी रहित हैं। फिर गोत्र कर्म के माहात्म्य से ही जीव की ऊंच २३ और नीच २४ दशा होती रहती हैं। सो सिद्ध परमात्मा के इस कर्म का अभाव हो जाने से उनकी ऊंच वा नीच दशा भी जाती रही । जिस प्रकार अग्नि के न रहने से तप्त का अभाव भी साथ ही हो गया, ऐसे ही सिद्ध परमात्मागोत्र कर्म के नष्ट हो जाने से ऊंच और नीचता से भी रहित हैं। जिस प्रकार गोत्र कर्म की दोनों प्रकृतियों के तय हो जाने से वह ऊंच वा नीच नहीं हैं, ठीक उसी प्रकार शुभ नाम २५और अशुभ नास २६ रूप जो नाम कर्म की दो प्रकृतियां हैं, इन के भी क्षय हो जाने से वेनाम कर्म से रहित होकरनाम संज्ञा में स्थित हो गए हैं। कारण कि-नामकर्म सादिसान्त पद वाला है और नाम संज्ञा अनादि अनंत पद वाली होती है। जैसेकि-किसी व्यक्ति का नामकरण संस्कार हो चुका है, वह तो सादिसान्त पद वाला है। परन्तु उस व्यक्ति की जो जीव संज्ञा है वह सदा बनी रहगी। इस लिये सिद्ध परमात्मा के नाम कर्म के न रहने से नाम संज्ञाओं द्वारा उन को अनेक नामों से कीर्तन (पुकारा) किया जाता है क्योंकि उनकी नाम संज्ञा उन के गुणों से ही उत्पन्न हुई हैं। इसी लिये अनन्त गुणों की अपेक्षा से सिद्ध परमात्मा के अनंत नाम कहे जाते हैं । जव उन का दानान्तराय २७ लाभान्तराय २८ भोगान्तराय २६ उपभोगांतराय ३० और वीर्यान्तराय ३१ रूप पांच प्रकृतियों वाला अंतराय कर्म नष्ट हो गया तव उक्त पांचों अनंत शक्तियां उन में उत्पन्न हो गई । जिस कारण से सिद्ध परमात्मा को अनंत शक्ति वाला कहा जा सकता है। सो जो अनादि पद युक्त सिद्ध पद है उस में उक्त गुण सदा से चले आ रहे हैं, परंच जो सादि अनंत पद ,वाला सिद्ध है, उस में उक्त गुण ८ कर्मों के क्षय हो जाने से प्रकट हो जाते हैं। जिस प्रकार सुवर्ण मल से रहित होजाने पर अपनी शुद्धता धारण करने लग जाता है, ठीक उसी प्रकार जव जीव से८ प्रकार के कर्मों का मल पृथक् हो जाता है तव जीव अपनी निज दशा में प्रविष्ट हो जाता है। परन्तु शुद्ध दशा के धारण करने के लिये प्रथम सालम्बन ध्यान
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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