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________________ ( ४४ ) कि-कल्पना करो कि-संस्कृत इंगलिश जर्मन अर्वी इत्यादि भाषाओं का उच्चारण भिन्न २ प्रकार से देखा जाता है, इतना ही नहीं किन्तु इन की आकृति भी परस्पर विभिन्नता रखती है। परन्तु इस प्रकार होने पर भी एक पुरुष के हृदय में वे उक्त भाषाएं समभाव से ठहरती हैं । ऐसा नहीं है कि-हृदय में संस्कृत का स्थान और है, और इंगलिश का स्थान उससे भिन्न है। सो जिस प्रकार भाषाएं एक रूप से एक पुरुष के हृद्य में ठहरती हैं; ठीक उसी प्रकार जहां पर एक सिद्ध विराजमान हैं उसी स्थान पर अनंत सिद्ध भगवान् विराजमान हैं। क्योंकि-जिस प्रकार अनेक दीपकों का प्रकाश परस्पर मिल जाता है, फिर वह एक रूप से दृष्टिगत होने लग जाता है, ठीक उसी प्रकार अनेक सिद्धों के आत्म-प्रदेश परस्पर मिल जाते हैं। फिर वे एक रूप से हो कर ठहरते है । जिस प्रकार मिन्न २ आकृति होने पर भी पुरुष के हृदय में घट और पटादि की आकृति ठहर जाती है उसी प्रकार सिद्धों के प्रदेश भी परस्पर मिले हुए होते हैं । तथा जैसे-चक्षुरिन्द्रिय के ज्ञान द्वारा नाना प्रकार की श्राकृति वाले पदार्थ ज्ञानात्मा में एक रूप से निवास करते हैं ठीक उसी प्रकार अजर, अमर, सिद्ध, वुद्ध, पारंगत मुक्त इत्यादि नामों से युक्त सिद्ध भगवान् भी एक रूप से विराजमान हैं। उन सिद्धों को दीक्षा समय श्री तीर्थंकर देव भी नमस्कार करते हैं। अतएव श्री सिद्ध भगवान् देवाधिदेव है। उन के शुभ नाम से नाना प्रकार के विघ्न दूर होते हुए आत्मा निज कल्याण करने के लिए पूर्णतया समर्थ हो जाता है। और शास्त्रों में सिद्धों के ३१ गुण वर्णन किये गए हैं जैसे कि एक्कतीसं सिद्धाइगुणा प. तं-खीणे आभिणि बोहियणाणावरणे खाणे सुयणाणावरणे खीणे अोहिणाणावरणे खीणे मणपज्जवणाणावरणे खीणे केवलणाणावरणे खाणे चक्खुदंसणावरणे खीणे अचक्खुदसणावरणे खीणे अोहिदसणावरणे खीणे केवलदसणाचरणे खीणे निद्दा खीणे निद्दा निद्दा खीणे पयला खीणे पयलापयला खीणे थीणद्धी खीणे सायावेयणिजे खीणे असायावेयणिज्जे खीणे दंसणमोहणिज्जे खीणे चरित्त मोहणिज्जे खीणे नेरहाउए खीणे तिरित्राउए खीणे मणुस्साउए खीणे देवाउए खीणे उच्चागोए खीणे निच्चागोए खीणे सुभनामे खीणे असुभणामे खीणे दाणांतराए खीणे लाभान्तराए खीणे भोगान्तराए खीणे उवभोगतराय खीणे वीरिअन्तराए । समवायाग सूत्र ३१ वा समवायाभ्ययन। भावार्थ-सिद्ध परमात्मा के ३१ गुण वर्णन किये गए है, यद्यपि सिद्ध परमात्मा अनंत गुणों के धारण करने वाले हैं तथापि अाठ कर्मों के क्षय करने
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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