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________________ ( ३३ ) जा रहे हैं, और उसी में जीव निमग्न हो रहे हैं। सो यावत्काल सम्यक्त्व रूपी सूर्य का हृदय में प्रकाश नहीं होता तावत्काल पर्यन्त मिथ्यात्व रूपी तिमिर नए नहीं हो सकता । सो भगवान् उक्त दोष से भी रहित हैं। क्योंकि-दर्शन मोहनीय कर्म के क्षय होजाने से मिथ्यात्व की सर्व प्रकृतियां क्षय होजाती हैं। १४ अज्ञान-सम्यग् ज्ञान होने से अज्ञान उनका नष्ट होगया है-जैसे सूर्य के उदय होते ही अन्धकार भाग जाता है ठीक तद्वत् जब केवलज्ञान प्रकट होता है तब उसी समय अज्ञानरूपी तिमिर भाग जाता है । सो भगवान् मौढ्यभाव से रहित होते हैं और सर्वज्ञ और सर्वदर्शी पद के धारण करने वाले होते हैं । अतः उनमें अज्ञानभाव का लेश भी नहीं होता। १५ निद्रा-श्रीभगवान् निद्रागत भी नहीं होते क्योंकि-निद्रा का आना दर्शनावरणीय कर्म के कारण होता है, सो वह कर्म पहिले ही क्षय किया जाता है जव निद्रा का कारण ही नष्ट होगया तो फिर निद्रारूप कार्य की प्राप्ति किस प्रकार हो सके ? क्योंकि-जो सर्वज्ञ प्रभु होते हैं वे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म से रहित होते हैं अतएव वे सदैव काल जाग्रतावस्था में ही रहते हैं. तथा यदि ऐसे कहा जाय कि-निद्रा का मुख्य हेतु आहारादि क्रियाएं है इसलिये जैसा-गरिष्ठादि श्राहार किया जाता है उसी प्रकार निद्रा का श्रावेश होता है । सो यह युक्ति संगत नहीं है क्योंकि-निद्रा का आना दर्शनावरणीय कर्म का उदय है और क्षुधा का लगना यह वेदनीय कर्म का उदय है सो केवली भगवान् के वेदनीय कर्म का तो उदय रहता है परन्तु दर्शनावरणीय कर्म उनका सर्वथा क्षय होता है। सो जब निद्रा का कारणीभूत कर्म ही नष्ट होगया तो फिर आहारादि द्वारा निद्रादि कार्यों की कल्पना करना यह कथन युक्ति संगत नहीं है तात्पर्य यह कि-श्रीभगवान् निद्रा के दोष से रहित हैं। १६ अविरति-श्रीभगवान् विरति युक्त होते हैं अर्थात् वे अप्रत्याख्यानी । नहीं हैं किन्तु प्रत्याख्यानी हैं अप्रमत्त संयत पद के धारण करने वाले हैं। १७ राग-राग रूप दोप से भी श्रीभगवान् रहित होते हैं क्योंकि-जब पदार्थों पर राग भाव बना रहा तव सुख की स्मृति और उस पौद्गलिक सुख के लिये फिर नाना प्रकार के परिश्रम किये जाते हैं जब पुरुषार्थ में असफलता दीख पड़ती है तव चित्त उदासीन वृत्ति में प्रवेश किये बिना नहीं रह सकता । सो जिस आत्मा की उक्त वृत्ति हो जाए, फिर उस आत्मा को सर्वज्ञ स्वीकार करना नितान्त भूल भरी वात सिद्ध होती है। अतः श्रीभगवान् राग रूपी दोष से भी रहित हैं। अन्यथा जव सर्वज्ञ प्रभुभीरागयुक्त स्वीकार किये जायेंगेतव अस्मदादि व्यक्तियों में और उनमें विशेषता ही क्या रही? तथा यावन्मात्र संसार में अकृत्य कर्म है; रागी पुरुष उन सव को कर डालता है । जव अकृत्य कार्य में रागी
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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