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________________ अतंराया दानलाभवीर्यभोगौपभोगगा. ॥ हास्योरत्यरती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥१॥ कामो मिथ्यात्वमजान निद्राचाविरतिस्तथा रागो द्वेषश्च नो दोषास्तषामष्टादशाप्यमी ॥ २ ॥ भावार्थ-श्रीभगवान् के दानान्तराय के क्षय होजाने से दान देने की अनंत शक्ति उत्पन्न होजाती है यदि वे चाहे तो विश्व भर का दान कर सकते हैं। कोई भी उनको हटा नहीं सकता, कारण कि-चे अनंत चली और सर्वज्ञ होते हैं, इसी प्रकार लाभान्तराय क्षय करने से लाभ की शक्ति उत्पन्न होती है। वीर्यान्तराय के क्षय करने से अनन्त आत्मिक शक्ति उत्पन्न होजाती है। श्रीभगवान् के अतिरिक्त अन्य छमस्थ श्रात्माएं बलवीर्यान्तराय कर्म के माहात्म्य से अनंत आत्मिक वल आच्छादन किये हुए हैं । सो श्रीभगवान् उक्त कर्म के क्षय करने से अनंत शक्ति-संपन्न होते हैं। भोगान्तराय कर्म के क्षय करने से भोगने योग्य पदार्थों के भोगने की अनंत शक्ति उत्पन्न हो जाती है। क्योंकि-जो पदार्थ एक ही वार भोगने में श्रावेंः जैसे-पुष्प मालादि, उन्हें भोग कहते हैं। किन्तु जो पुनः पुनः भोगने में श्रावेंजैसे-स्त्री आदि पदार्थ हैं। उन्हें उपभोग कहते हैं। सो श्रीभगवान् के दोनों भोग और उपभोगान्तराय के क्षय होजाने से दोनों के लिये अनंत शक्ति उत्पन्न हो जाती है। सो अन्तराय कर्म की पांच मूल प्रकृतियों के क्षय करने से एक प्रकार की-पांचों ही अनुपम शक्तियां उत्पन्न हो जाती हैं। अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-जव भोग और उपभोगादि प्रकृतियां क्षय हो जाती हैं। तब उक्त प्रकृतियों के क्षयहो जाने से उक्त पदार्थों को श्रीभगवान् भली प्रकार से भोगते होंगे। क्योंकि प्रकृति के क्षय करने कीतवही सफलता हो सकती है-जव उसके विघ्न के नाश हो जाने पर चे पदार्थ भोगे जाएं जब वे उक्त पदार्थों के भोगने वाले सिद्ध हैं, तव वेसंसारीजीवों की अपेक्षा महाकामी सिद्ध होंगे। इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार से किया जाता है। कि-स्त्री आदि के भोगने के भाव मोहनीय कर्म के उदय से ही उत्पन्न होते हैं, सो श्रीभगवान् सव से पहिले मोहनीय कर्म ही का नाश करते हैं। जब मोहनीय कर्म का नाश हो गया तव विकार किस प्रकार हो सकता है ? अतएव मोहनीय कर्म के नाश करने के अनन्तर अंतराय कर्म क्षय किया जाता है। इस लिये वे शक्तियां उत्पन्न हो जाने पर विकार भाव को उत्पन्न नहीं कर सकतीं। जैसे-किसी व्यक्ति में शस्त्र के द्वारा प्रहार करने की शक्ति तो विद्यमान है, परन्तु उस का किसी जीव के साथ चैर भाव नहीं है, तो फिर वह शस्त्र-प्रहार किस पर करे ? यदि ऐसा कहा जाय कि-उक्त अन्तराय कर्म के पांचों प्रकृतियों के क्षय करने से तो फिर श्रीभगवान् को लाभ ही क्या हुआ ? जब वे उनसे कोई
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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