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________________ प्रस्तावना। जिस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को आहार, निद्रा भय, मैथुन और परिग्रह की श्राशा लगी रहती है और उनकी खोज के लिए दत्तचित्त होकर क्रियाओं में प्रवृत्ति की जाती है। ठीक उसी प्रकार दर्शन विषय में भी खोज की प्रवृत्ति होनी चाहिए । यावत्काल पर्यन्त दार्शनिक विषय में खोज नहीं की जाती तावत्कालपर्यन्त आत्मा स्वानुभव से भी वंचित ही रहता है । इस स्थान पर दर्शन नाम सिद्धान्त तथा विश्वास का है। जब तक किसी सिद्धान्त पर दृढ़ विश्वास नहीं होता तबतक आत्मा अभीष्ट क्रियाओं की सिद्धि में फलीभूत नहीं होता। अव यहा यह प्रश्न उपस्थित होता है कि, किस स्थान (सिद्धात) पर दृढ़ विश्वास किया जाए, क्योंकि, इस समय अनेक दर्शन दृष्टिगोचर हो रहे हैं । इस प्रश्न के उत्तर में कहा जा सकता है कि, यद्यपि वर्तमान काल में पूर्वकालवत् अनेक दर्शनों की सृष्टि उत्पन्न हो गई है वा हो रही है, तथापि सब दर्शनों का समवतार दो दर्शनों के अन्तर्गत हो जाता है। जैसे, आस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन। यदि इस स्थान पर ये शंका उत्पन्न की जाए कि, नास्तिक मत को दर्शन क्यों कहते हो? तव इस शंका के समाधान में कहा जाता है दर्शन शब्द का अर्थ है विश्वास (दृढ़ता) सो जिस आत्मा का मिथ्याविश्वास है अर्थात् जो आत्मा पदार्थों के स्वरूप को यथार्थ दृष्टि से नहीं देखता है, उसीका नाम नास्तिक दर्शन है, क्योंकि, नास्तिक दर्शन आत्मा के अस्तित्वभाव को नहीं मानता है सौ जव आत्मा का अस्तित्वभाव ही नहीं तो फिर भला पुण्य और पाप किस को तथा उसके फल भोगनेरूप नरक, तिर्यक् , मनुष्य और देव योनि कहाँ ? अत एव निष्कर्ष यह निकला कि नास्तिक मत का मुख्य सिद्धान्त ऐहलौकिक सुखों का अनुभव करना ही है । यद्यपि इस मत विषय वहुत कुछ लिखा जा सकता है तथापि प्रस्तावना में इस विषय में अधिक लिखना समुचित प्रतीत नहीं होता । सो यह मत आर्य पुरुषों के लिये त्याज्य है, क्योंकि, यह मत युक्ति बाधित और प्रमाणशून्य हैं। अतएव आस्तिकमत सर्वथा उपादेय है, इस लिये आस्तिक मत के आश्रित होना आर्य पुरुषों का परमोद्देश्य है । क्योंकि, श्रास्तिक मत का मुख्योद्देश्य अनुक्रमतापूर्वक निर्वाण प्राप्ति करना है। यदि इस स्थान पर यह शंका उत्पन्न की जाए कि, आस्तिक किसे कहते हैं। तब इस शका के उत्तर में कहा जाता है कि, जो पदार्थों के अस्तित्वभाव को मानता है तथा यो कहिये कि, जो पदार्थ अपने द्रव्य गुण और पर्याय में अस्तित्व रखते है, उनको उसी प्रकार माना जाए वा उनको उसी प्रकार से मानने वाला आस्तिक कहलाता है। __ व्याकरण शास्त्र में आस्तिक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार से कथन की गई है, जैसे किदैष्टिकास्तिकनास्तिकाः (शाकटायन व्याकरण अ. ३ पा. २ सू० ६१) दैष्टिकादयस्तदस्येति षष्ठपर्थे ठणन्ता निपात्यन्ते । दिष्टा प्रमाणानुपातिनी मतिरस्य दिष्टं देव प्रमाणमिव मतिरस्यति दैष्टिक. । अस्ति परलोकः पुण्य पापमिति च मतिरस्येत्यास्तिक. । एवं नास्तीति नास्तिक. ।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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