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________________ · ( १३ ) की शक्ति उत्पादन कर लेता है अतएव शीलव्रतों को निरतिचार ही पालना चाहिए । १३ क्षणलव-क्षण और लव यह दोनों शब्द काल के वाचक है, सो क्षणलव में संवेगभावना ध्यानासेवन के द्वारा भी उक्त कर्म वांधा जासकता है । इसका सारांश यह है कि क्षण २ में संवेगभाव धारण करना चाहिये तथा अनित्यादि भावनाओं द्वारा अपना समय व्यतीत करना चाहिए। इतना ही नहीं किन्तु धर्मध्यान वा शुक्लध्यान द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा कर देनी चाहिये । कारण कि पुरातन कर्मों के क्षय करने के यही पूर्वोक्त उत्तम मार्ग हैं । सो इन्हीं के सेवन से अपना पवित्र समय व्यतीत करना चाहिये, सो जब आत्मा में संवेगभाव उत्पन्न हो जायगा तव अनित्यादि भावनाएं और शुभ ध्यान सहज में ही प्राप्त किये जा सकते हैं । अतएव यदि क्षणलव शुभ क्रियाओं द्वारा व्यतीत किए जायेंगे तव क्षयोपशम-भाव द्वारा तीर्थकर नाम गोत्र कर्म के बन्ध की प्राप्ति हो जाती है । इस कथन से यह भी सिद्ध हुए विना नहीं रह सकता कि समय व्यर्थ न खोना चाहिये अपितु धर्मक्रियाओं द्वारा समय सफल करना चाहिये । जैसे वैतनिक पुरुष का समय वेतन के साथ वृद्धि पाता रहता है, ठीक तद्वत् धर्मी पुरुष का समय धर्म क्रियाओं द्वारा सफल हो जाता है । १४ तपः - जिस प्रकार अग्नि श्रई इंधन वा शुष्क इंधन को भस्म कर देती है ठीक उसी प्रकार यावन्मात्र कर्म किये हुए हैं, वे सर्व तपकर्म द्वारा क्षय किये जा सकते है । अतएव प्रत्येक प्राणी को तप कर्म के श्राश्रित होना चाहिए, और फिर इसी तप क्रिया से अनेक प्रकार की आमैषिधि नामक ऋद्धिएं उत्पन्न हो जाती हैं, और आत्मा का तेज विशाल हो जाता है वा आत्म-तेज द्वारा जीव सर्वज्ञ और सर्वदर्शी वन जाता है, अतएव तप करना अत्याव श्यकीय है। तथा वहुत से शारीरिक रोग भी तप कर्म से उपशान्त हो जाते हैं. जब आत्मा नीरोगावस्था में होता है: तव समाधि आदि की कियाएं भी सुखपूर्वक साधन की जा सकती हैं तथा अनेक प्रकार के भयंकर कष्टों से तपकर्म द्वारा जीव रक्षा पाते हैं । सो वाह्य और श्राभ्यन्तर दोनों प्रकार के तप कर्म द्वारा उक्त कर्म का निवन्ध किया जा सकता है, सो यथाशक्ति तपकर्म करने का अवश्यमेव अभ्यास करना चाहिए । १५ त्याग-दान- क्रियाओं से उक्त कर्म का निवन्धन किया जा सकता है सो यति आदि को उचित दान देने से उक्त कर्म करने का निबन्धन करना चाहिए । यद्यपि दान के अनेक प्रकार से भेद वर्णन किए गए हैं, तथापि सब से बढ़ कर श्रुतविद्या का दान माना जाता है । क्योंकि- और दानों से तो ऐहलौकिक वा
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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