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________________ ( ३०८ ) शीतस्पर्शपरिणाम, उष्णस्पर्शपरिणाम,स्निग्धस्पर्शपरिणाम, और रूक्षस्पर्शपरिणाम । इस प्रकार अजीवद्रव्य आठ प्रकार के स्पर्शपरिणाम से परिणत होरहा है तथा यावन्मात्र पुद्गल द्रव्य है वह सब आठ स्पर्शों वाला ही है । सोयह सब अजीव द्रव्य का ही परिणाम जानना चाहिये । सो यह द्रव्य समय २ परिणाम भाव को प्राप्त होता रहता है। अब शास्त्रकार अगुरुकलघुकपरिणाम विषय कहते हैं ! अगुरुलहुपरिणामपं भंते कतिविधे प. १ गोयमा ! रागागारे पएणते ॥ भावार्थ-हे भगवन् ! अगुरुलघुपरिणाम के कितने भेद प्रतिपादन किये गए हैं ? हे गौतम ! अगुरुलघुपरिणाम एक ही प्रकार से वर्णन किया गया है जैसेकि-पुद्गल को छोड़ कर शेष चारों द्रव्यों के प्रदेश अगुरुलघुभाव से परिणत हैं तथा कार्मण शरीर के स्कन्ध भी अगुरुलघुभाव वाले ही प्रतिपादित किये गए हैं। कारणकि-आत्मा के आत्म-प्रदेश भी अगुरुलघु भाव वाले हैं । अतएव जव आत्मा के साथ आठों (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्कर्म, नाम, गोत्र और अंतराय कर्म) प्रकार के कर्मों का सम्बन्ध होता है। तव कमाँ की वर्गणायें अगुरुलघुक संज्ञक मानी जाती हैं, तव ही आत्मप्रदेशों के साथ क्षीरनीरवत् अोतप्रोत होकर वे वर्गणायें ठहरती हैं। सो अगुरुलघुपरिणाम के अनेक भेद नहीं हैं, केवल एक ही भेद प्रतिपादन किया गया है। अब सूत्रकार शब्द परिणाम विषय कहते हैं सद्दपरिणामेणं भंते कतिविधे प. १ गोयमा ! दुविहे पएणत्ते तंजहा. सुम्भिसद्दपरिणामेय दुम्भिसदसद्दपरिणामेय से तं अजीव परिणामे पगणवणाभगवईएपरिणाम पदं सम्मत्तं ॥ __भावार्थ-हे भगवन् ! शब्द परिणाम कितने प्रकार से प्रतिपादन किया गया है ? हे गौतम ! दो प्रकार से-सुशब्द परिणाम और दुष्टशब्दपरिणाम । इस कथन का सारांश इतना ही है कि-जब परमाणुओं का समूह शब्द रूप में परिणत होने लगता है तब वह दो प्रकार से परिणत होता है जैसेकि-शुभ शब्द रूप में वा अशुभ शब्द रूप में। क्योंकि-जो मनोहर शब्द होता है वह मन और कर्णेन्द्रिय को प्रिय और सुखकर प्रतीत होने लगता है और जो अशुभ और कटुक शब्द होता है वह मन और कर्णेन्द्रिय को कंटक के समान लगता है। परंच यह सब शब्दपरिणाम अजीव परिणाम का ही भेद है । सो इस प्रकार श्रीप्रज्ञापन सूत्र के त्रयोदशवे पद में जीव परिणाम और अजीव परिणाम का वर्णन किया गया है। इति श्रीजैनतत्त्वकालकाविकासै परिणामपदनाम्नी नवमी कलिका समाप्ता ॥ इति श्री जैनतत्त्वकलिका विकासः समाप्तः ।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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