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________________ ( २८२ ) जाता है अर्थात् मिट्टी का लेप उतर जाने से फिर वह तुंबा ऊपर को उठ आता है । इसी प्रकार हे गौतम ! कर्मों के संग न रहने से नीराग होने से और गति परिणाम से अकर्मक जीवों की भी गति स्वीकार की जाती है । इस दृष्टान्त का सारांश केवल इतना ही है कि जिस प्रकार बंधनों से रहित होकर तुंबक जल के ऊपर तैरता है उसी प्रकार अकर्मक जीव भी कर्मों से रहित होकर लोकाग्र भाग में विराजमान हो जाता है ॥ कहन्नं भंते ! बंधणछेदण्याए कम्मस्स गई पन्नत्ता ? गोयमा ! से जहा नामए – कल सिंवलियाइ वा मुग्गसिंबलिया वा माससिंवलियाई वा एरंडमिंजियाइ वा उहोदना सुक्कासमाणी फुडित्ता गं एगंतमंतं गच्छई, एवं खलु गोयमा । भावार्थ - हे भगवन् ! किस प्रकार बंधन छेदन से अकर्मक जीवों की गति जानी जाती है ? हे गौतम ! जैसेकि - कलायाभिधान, धान्यफलिका, मूंग की फली, माषक (सां) की फली, सिंवलि वृक्ष की फली, एरंड का फल, धूप में सुखाया हुआ अपने आप फल से वा फली से वीज वाहर आ जाता है ठीक उसी प्रकार हे गौतम! जव अकर्मक जीव शरीर को छोड़ता है जिस प्रकार सूखे फल से बीज बंधन रहित होकर गति करता है, उसी प्रकार उक्त कर्मक जीव की गति जानी जाती है। कहन्नं भंते ! निरंधणयाए कम्मस्सगती ?, गोयमा ! से जहा नाए ! धूमस्स इंधण विप्पमुकस्स उद्धं वसिसाए निव्वाघाएणं, गतीपवत्तति एवं खलु गोयमा ? ॥ भावार्थ- हे भगवन् ! निरंधनता से अकर्मक जीवों की गति किस प्रकार स्वीकार की जाती है ? हे गौतम ! जैसे धूम इंधन से विप्र मुक्त होकर स्वाभाविकता से ऊर्ध्वगति प्राप्त करता है ठीक उसी प्रकार कर्मो से रहित हो जाने पर अकर्मक जीवों की गति स्वीकार की जाती है क्योंकि — जय घूँचा उठता है तव स्वाभाविकता से ऊर्ध्वगमन करता है, ठीक उसी प्रकार कर्म जीवों की गति देखी जाती है ।। तथा च- कहन्नं भंते ! पुव्यप्पोगेणं श्रकम्मस्सगती पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए – कंडस्स कोदंडविप्पमुकस्स लक्खाभिमुही निव्वाघाएं गती पवत्तइ, एवं खलु गोयमा ! नर्सिंगयाए निरंगण्याए जाव पुव्वप्ययोगेणं कम्मस्स गती पण्णत्ता । भग० श० ७ उ० १ ॥
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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