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________________ ( २७१ ) स्वभाव भी होना चाहिए, क्योंकि यदि वीज दग्ध है वा अन्य प्रकार से उसका स्वभाव अंकुर देने का नही रहा है तव वह वीज फलप्रद नही होगा। अतः चीज का शुद्ध स्वभाव होना चाहिए, फिर स्वभावानुसार नियति (होनहार) होनी चाहिए जैसे कि खेती की रक्षादि । फिर लाभप्रद कर्म होना चाहिए जिलसे खेतीधान्यों से निर्विघ्नता पूर्वक पूर्ण होजावे। जव ये कर्म अनुकूल हों तव फिर उस खेती की सफलता सर्वथा पुरुपार्थ पर ही निर्भर है क्योंकि-उक्त चारोकारणों की सफलता केवल पुरुषार्थ पर ही अवलम्वित है। कल्पना करो कि-लमय, स्वभाव, नियति । भवितव्यता ) और कर्म ये चारों अनुकूल भी हो जाएँ, परन्तु चारो की सिद्धि में पुरुपार्थ नहीं किया गया तव चारो ही निप्फल सिद्ध होगे । सिद्ध हुआ कि प्रत्येक कार्य में पूर्वोक्त पाँचों समवायों की अत्यन्त आवश्यकता है। सो जिस समय जीव कर्मों के फल को भोगने लगता है तब उस फल को भोगने के लिये पाँच ही समवाय एकत्र हो जाते हैं। यदि ऐसे कहा जाय कि-कर्म तो जड़ हैं, वे जीव को फल किस प्रकार दे सकते हैं ? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि-ऋतु (काल) तो जड़ है यह पुष्पों वा वृक्षो को प्रफुल्लित किस प्रकार कर सकती है? तथा मदिरा भी तो जड़ है यह पीने वाले को अचेत किस प्रकार करदेती है ? इसी प्रकार कर्म जड़ होने पर भी पाँचों समवायों के मिल जाने पर श्रात्मा को गुभाशुभ फलों से युक्त करदेते है । जिस समय जीव कर्म करता है उसी समय उसके उदय चा उपशमादि निमित्तो को भी चाँध लेता है। जिस प्रकार जव किसी व्यक्ति को किसी रोग का चक्र ( दौरा ) आने लगता है तब उसे रोकने के लिये वैद्य लोग अनेक प्रकार की औपधियों का उपचार करते हैं, और क्रमशः चेष्टायो से सफल मनोरथ हो जाते हैं। जिस प्रकार रोग चक्र का उदय और उपशम होना निश्चित है ठीक उसी प्रकार जो कर्म किये जा चुके है उन कर्मों का उदय वा उपशम होना भी प्रायः वाँधा हुआ होता है। साथ ही नूतन भी उपक्रम यात्मा निज भावो से उत्पन्न कर लेता है कारणकिआत्मा वीर्ययुक्त माना गया है, वह अपने वीर्य द्वारा नूतन निमित्तादि भी उत्पन्न कर सकता है। सो आत्मा निज कर्मों के अनुसार ही सुख दुःख का अनुभव करता है । कर्मों का ठीक २ विज्ञान होने पर ही श्रात्मा फिर उनसे विमुक्त होने की चेष्टा करेगा। क्योंकि-यदि शान ही नहीं तो भला फिर उनसे छूटने का उद्योग किस प्रकार किया जा सकता है ? सम्यग्ज्ञान होने से ही जीव चारित्रारूढ़ हो सकता है। श्री भगवान् ने भगवती सूत्र में निम्न प्रकार से जनता को दृष्टांत देकर समझाया है । जैसेकि• अस्थि णं भंते ! जीवाणं पावाकम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कति ?
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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