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________________ ( २५६ ) २ विरति (व्रत) संवर—जव आत्मा सम्यग् दर्शन से युक्त होता है तब वह व के मार्गों को विरति के द्वारा निरोध करने की चेष्टा करता है । फिर वह यथाशक्ति सर्व विरति रूप धर्म वा देशविरति रूप धारण कर लेता है । जिस के द्वारा उस के नूतन कर्म आने के मार्ग रुक जाते हैं । सर्व विरति रूप धर्म में ५ महाव्रत और देशविरति में १२ श्रावक के व्रत समवतार किये जाते हैं; जिन का वर्णन पूर्व किया जा चुका है । ३ अप्रमादसंवर – किसी भी धार्मिक क्रिया के करने में प्रमाद न करना उसी का नाम अप्रमाद संवर है । क्योंकि-प्रमाद करना ही संसार चक्र के परिभ्रमण करने का मूल कारण है । आचारांग सूत्र में लिखा है कि ': सव्वओ प्रमत्तस्स अत्थि भयं सव्वच अपमत्तस्स नत्थि भयम्” सर्व प्रकार से प्रमत्त जन को भय और सर्व प्रकार से अप्रमत्त जन को निर्भयता रहती है। सो अप्रमत्त भाव से क्रिया कलाप करना ही अप्रमत्त संवर कहा जाता है । ४ अकषायसंवर-क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों से बचना ही संवर है । क्योंकि जिस समय ये चारों कषाय क्षय हो जाती हैं उसी समय जीव को केवल ज्ञान प्राप्त होजाता है । अतः इसे अकषाय संवर कहते हैं । ५अयोगसंवर-जिस समय केवल ज्ञानी आयु कर्म के विशेष होने से त्रयोदशवें गुण स्थान में होता है, उस समय वह मन, वचन और काय इन तीनों योगों से युक्त होता है । किन्तु जय केवली भगवान् की आयु अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाण शेष रह जाती है, तव वह चतुर्दशवें गुण स्थान में प्रविष्ट हो जाते हैं । फिर क्रमपूर्वक तीनों योगों का निरोध करते हैं, जिससे वह अयोगी भाव को प्राप्त होकर शीघ्र ही निर्वाण पद की प्राप्ति करलेते हैं । इसका सारांश इतना ही है कि जब तक आत्मा योगी भाव को प्राप्त नहीं होता तब तक मोक्षारूढ भी नहीं हो सकता । सो उक्त पाँचों संवर द्वारा नूतन कर्मों का निरोध करना चाहिए । ७ निर्जरातत्त्व - जब नूतन कर्मों का संवर हो गया तब प्राचीन जो कर्म किये हुए हैं उनको तप द्वारा क्षय करना चाहिए। क्योंकि-कर्म क्षय करने का ही अपर नाम निर्जरा है । सो शास्त्रकारों ने निर्जरातत्त्व के निम्न लिखितानुसार विस्तारपूर्वक १२ द्वादश भेद प्रतिपादन किये हैं । जिनमें से ६ वाह्य हैं और ६ अभ्यन्तर । बाह्य तप अनशन तप-उपवासादि व्रत करने ॥ १ ॥ उनोदरी - स्वल्प आहार करना ॥ २ ॥ भिक्षाचरी तप - निर्दोष आहार भिक्षा करके लाना ॥ ३ ॥ रसपरित्याग तप-घृतादि रसों का परित्याग करना ॥ ४ ॥
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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