SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ४ ) 1 उसका ज्ञान किस प्रकार से हो सकता है यह शंका भी निर्मूल सिद्ध हो जाती है जैसे कि - वर्त्तमान काल में प्रायः ज्योतिष शास्त्र द्वारा वार्षिक वहुतसे फलादेश ठीक मिलते दृष्टिगोचर होते रहते हैं तथा शकुन शास्त्र द्वारा बहुत से पदार्थो का यथावत् ज्ञान होजाता हैवा गणन द्वारा चंद्र वा सूर्य ग्रहण तथा चंद्र दर्शन आदि ठीक होते हुए दृष्टिगोचर होते हैं जबकि मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान द्वारा ही उक्त पदार्थों का निश्चय किया जाता है तो फिर जिस आत्मा को केवलज्ञान ही उत्पन्न हो गया उस के तो सर्व पदार्थों का ज्ञान हस्तामलकवत् होजाता है । क्योंकि - जैनशास्त्रों में ज्ञान को प्रदीपवत् स्वप्रकाशक और परप्रकाशक माना गया है सो जैसे गर्भाधान के हो जाने पर वैद्यक शास्त्र द्वारा उस बालक की उत्तरोत्तर दशाओं का भली भाँति ज्ञान होजाता है ठीक उसी प्रकार कर्मों के संग होने से जीव की उत्तरोत्तर दशाओं का ज्ञान रहता है । फिर इतना ही नहीं किन्तु जिस प्रकार सर्वज्ञात्मा ने अपने ज्ञान मे जिस जीव की दशाओं का अवलोकन किया हुआ है अर्थात् ज्ञान में जिस प्रकार उन दशाओं का प्रतिविम्व पड़ा है वे दशाएँ उसी प्रकार परिणत होती हैं क्योंकि - सर्वज्ञात्मा यथावत् ज्ञान के धरने वाला होता है सो यह शंका जो की गई थी कि वस्तु के न होने पर ज्ञान किस प्रकार होगा सो यह निर्मूल सिद्ध हुई अपितु उत्तरोत्तर दशा ज्ञान से विदित होती रहती है । कालद्रव्य पदार्थों के नूतन वा पुरातन पर्यायों का कर्त्ता है फिर वे पर्याये स्थिति युक्त होने से तीन काल के सिद्ध करने वाली हो जाती हैं - एव सर्वज्ञ शब्द के साथ त्रिकाल दर्शी शब्द युक्तिसंगत सिद्ध होता है । अपितु ज्ञानसद्भाव से तीनो काल मे एक रसमय रहता है, परंच जिस प्रकार जिस पदार्थ के स्वरूप को देखा गया है वह पदार्थ उसी प्रकार से परिरात हो जाता है इसी कारण से वा इसी अपेक्षा से केवलज्ञानी भगवान् को त्रिकालदर्शी माना गया है तथा च पाठः णायमेयं श्ररहया सुयमेयं अरहया विन्नायमेयं रहा इमं कम्मं अयं जीवे अभोवगमियाए वेयणाए वेदिस्सर इमं कम्मं श्रयं जीवे उवकमियाए वेदणाए वेदिस्स हास्मं अहानिकरणं जहा जहा तं भगवया दिष्टं तहा तहा तं विप्परिणमिस्सतीति ॥ भगवती • सू० श० १ उद्देश ४ । वृत्ति—ज्ञातं—सामान्येनावगतम् एतद् वक्ष्यमाणं वेदनाप्रकारद्वयम् अर्हता जिनेन 'सुर्य'ति स्मृतं प्रतिपादितम् अनुचिंतितं वा तत्र स्मृतमिव स्मृतं केवलित्वेन स्मरणाभावेऽपि जिनस्यात्यन्तमव्यभिचारसाधर्म्यादिति "विरणाये" ति विविधप्रकारैः - देशकालादिविभागरूपैर्ज्ञातं विज्ञातं तदेवाह
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy