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________________ गौतम गणधर से पूछते है कि-आप सूर्य किस को मानते हो? जव इस प्रकार से प्रश्न किया गया तव गौतम गणधर श्री केशीकुमार श्रमण प्रति कहने लगे कि-हे भगवन् ! जिस आत्मा का संसार क्षीण होगया है अर्थात् जिस आत्मा का संसार के जन्म मरण से सम्बन्ध छूट गया है फिर उसने रागद्धेप रूपी महाशत्रुओं को भी जीत लिया है जिससे उसका आत्मा सूर्यवत प्रकाश करने से ज्ञान स्वरूप होगया है इसी कारण से उसे सर्वज्ञ कहा जाता है क्योंकि-सर्वत्रता के प्रतिबंधक रागद्वेष ही हैं जब मूल से इन को उत्पाटन किया गया तब वह आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है तथा इसी कारण से उसे जिनभास्कर कहते हैं सो वह सर्वज्ञ और सर्वदर्शी आत्मा लोक (जगत्) में जो मिथ्यात्व रूपी घोर अंधकार में बहुत से प्राणी ठहरे हुए हैं उनको वही प्रकाश करेगा सारांश यह निकला कि-सर्वज्ञ और सर्वदर्शी आत्मा ही लोक में प्रकाश करसकता है क्योंकि उस पवित्र आत्मा के प्रतिपादन किये हुए ज्ञान द्वारा प्रत्येक प्राणी को आत्मविकाश करने में सहायता प्राप्त होजाती है जैसे कि-चक्षुरिन्द्रिय के निर्मल होने पर भी पदार्थों के देखने के लिये प्रकाश की आवश्यकता रहती है। ठीकतद्वत् सर्वज्ञ और सर्वदर्शी आत्मा के प्रतिपादन किये हुए सिद्धान्तों के आश्रय से प्रत्येक मुमुनु आत्मा अपनी उन्नति की ओर झुक सकता है क्यों-, कि उस सम्यग् ज्ञान द्वारा मिथ्या ज्ञान का आवरण दूर हो जाता है जव मिथ्या ज्ञान का आवरण दूर हो गया तव उस आत्मा को हेय-ज्ञेय-और उपादेय-रूप तीनों पदार्थों का भली भाँति से वोध होजाता है जब उक्त पदार्थों का वोध हो गया तव फिर वह आत्मा आत्मविकाश की ओर झुकने लग जाता है सो इसी कारण से उक्त सूत्र में यह प्रतिपादन किया गया है कि-मिथ्यात्व रूपी अंधकार में जो प्राणी ठहरे हुए हैं उनके लिये जिनभास्कर ही सूर्य है जैसे प्रकाश में लेखनादि क्रियाएँ सुख पूर्वक की जा सकती हैं ठीक उसी प्रकार सर्वज्ञ प्रभु के प्रतिपादन किये हुए सिद्धान्तों द्वारा वे उक्त प्राणी भी अपने आत्मविकाश करने में योग्यता धारण कर सकते हैं अतएव सिद्ध हुआ कि सर्वज्ञोक्त सिद्धान्त ही मिथ्यारूपी तिमिर के दूर करने के लिये भास्कर तुल्य माना जाता है और उसी के पठन पाठन से भव्य प्राणी सद्बोध वाआत्मविकाश कर सकते हैं। इतना ही नहीं किन्तु सर्वज्ञात्मा ज्ञानात्मा और उपयोगात्मा द्वारा सर्वव्यापक माना जाता है क्योंकि लोक वा अलोक में कोई ऐसा द्रव्य नहीं है जिसको वह अपने ज्ञान द्वारा नहीं जानता कारण कि ज्ञानात्मा सर्व व्यापक है अतएव लोक में जीव वा अजीव की जो अनन्त पर्याएं परिवर्तन हो रही हैं
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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