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________________ ( २३० ) उत्पन्न होगया, इस प्रकार माना जाय तव भी यह पक्ष युक्तियुक्त नहीं है क्यों कि- आकाश द्रव्य तो सर्व द्रव्यों का भाजनरूप सिद्ध हो ही गया अब शेष द्रव्य जो माने गए हैं उन पर विचार करना रहा। पुद्गलद्रव्य के स्कन्ध पर परस्पर संघर्षण करने से शब्द होता है यदि इस प्रकार माना जाय तब तो कोई भी आपत्ति की बात नहीं है । क्योंकि हमारा भी यह मन्तव्य है । यदि दिशादि द्रव्य माने जाएँ तब उनके मानने से वही दोष उत्पन्न होता है, जो आकाश का गुण शब्द मानने पर सिद्ध हो चुका है । श्रतएव जैन- सिद्धान्तानुसार आकाश का लक्षण अवकाश रूप जो प्रतिपादन किया गया है वहीं युक्तियुक्त है । अव सूत्रकार शेष द्रव्यों के लक्षणविषय कहते हैं । वत्तणालक्खणो कालो जीवो उवओोगलक्खणो नाणेणं दंसणेणं च सुर्हेण य दुहेरा य ॥ उत्तराध्ययनसूत्र अ. २८ गा. ॥ १० ॥ वृत्ति-वर्त्तते अनवच्छिन्नत्वेन निरन्तरं भवति इति वर्त्तना सा वर्त्तना एव लक्षणं लिङ्गं यस्येति वर्त्तनालक्षणः काल उच्यते तथा उपयोगो मतिज्ञानादिकः स एव लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणो जीव उच्यते । यतोहि ज्ञानादिभिरेव जीवो लक्ष्यते उक्तलक्षणत्वात् । पुनर्विशेषलक्षणमाह-ज्ञानेन विशेषावबोधेन च पुनर्दर्शनेन सामान्यावबोधरूपेण च पुनः सुखेन च पुनर्दुःखेन च ज्ञायते स जीव उच्यते ॥ भावार्थ- जो सदैव काल वर्त रहा है, जिसके वर्त्तने में कोई भी विघ्न उपस्थित नहीं होता, उसी का नाम काल है सो वर्त्तना ही काल का लक्षण प्रतिपादन किया गया है । जब पदार्थों की पुरातन वा नवीन दशा देखी जाती है, तब इसी द्वारा ही कालद्रव्य की सिद्धि होती है । क्योंकि-वर्त्तनालक्षण ही कालद्रव्य का प्रतिपादन किया गया है । सो उसी के द्वारा पदार्थों की नूतन वा पुरातन दशा देखी जाती है, किन्तु जीवद्रव्य का लक्षण उपयोग प्रतिपादन किया है । क्योंकि ज्ञान ही जिसका लक्षण है वही उपयोगलक्षण युक्त जीव है । इस स्थान पर लक्ष्य और लक्षण अधिकरण द्वारा प्रतिपादन किया गया है । परन्तु अवकरण द्वारा जीव द्रव्य की सिद्धि की जाती है। जैसेकि-ज्ञानविशेष वोध से, दर्शन- सामान्यबोध से, सुख और दुःख से जो जाना जाता है वही जीव द्रव्य है । साराँश इतना ही है कि जिस को ज्ञान और दर्शन हो साथ ही सुख और दुःखों का अनुभव हो उसी का नाम जीव है । पदार्थों का वोध और सुखं दुःख का अनुभव यह लक्षण जीव के बिना अन्य किसी भी द्रव्य में
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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