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________________ { २२३ ) मानता है; परन्तु पर्यायार्थिक नय के मत से प्रत्येक द्रव्य अपनी वर्तमान की पर्याय क्षणभंगुर में रखता है । क्योंकि-"सन् द्रव्यलक्षणम्" द्रव्य का लक्षण सत् प्रतिपादन किया गया है, किन्तु "उत्पाद व्यपध्रौव्ययुक्तं सत्" जो उत्पन्न व्यय और ध्रौव्य इन तीनों दशाओं से युक्त हो उसी की द्रव्य संज्ञा है। जैसे कि-भृत्ति का (मिट्टी) का पिंड कभी तो घटाकार होजाता है, कभी ईटाकार , और कभी अन्य रूप में परिणत होजाता है। उसके आकारों में तो परिवर्तन होता ही रहता है, परन्तु यदि निश्चय नय के मत के आश्रित होकर विचार किया जाय तब मृत्तिका द्रव्य ध्रौव्य भाव में निश्चित होगा । क्योंकि चाहे उस द्रव्य से किसी पदार्थ की भी निष्पत्ति होजाए परन्तु प्रत्येक पर्याय में मृत्तिका द्रव्य सद्रूप से विद्यमान रहता है । ठीक इसी प्रकार जैनमत भी प्रत्येक द्रव्य की यही दशा वर्णन करता है । द्रव्यों के समूह का नाम ही जगत् वा लोक है । अतएव यह स्वतः ही सिद्ध होजाता है कि जब द्रव्य अनादि अनन्त है तो भला फिर जगत् सादि सान्त कैसे सिद्ध होगा? कदापि नहीं। इसलिये द्रव्यार्थिक नय के मत से यह जगत् अनादि अनन्त है। परन्तु किसी पर्याय के प्राश्रित होकर उस क्षणस्थायी पर्याय के अवलम्बन से उस द्रव्य को क्षणविनश्वर कह सकते है जैसे-मनुण्य की पर्याय को लेकर मनुष्य की अस्थिरता का प्रतिपादन करना । क्योंकि मनुष्य पर्याय की अस्थिरता का वर्णन किया जा सकता है, नतु जीव की अस्थिरतावा जीव की अनित्यताका। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि इस जगत् में मूल तत्त्व दो ही हैं, एक जीव और दूसरा जड़ । सो दोनों के विस्तार का नाम जगत् है । दोनों द्रव्यों का जो अनादि स्वभाव (धर्म) है उसी को अस्तिकाय धर्म कहते हैं। जैनमत में छः द्रव्यात्मक जगत् माना गया है, जैसे कि-धर्म द्रव्य १ अधर्मद्रव्य २ अाकाश द्रव्य ३ कालद्रव्य ४ पुद्गलद्रव्य ५ और जीव द्रव्य ६ इन छः द्रव्यों में केवल एक द्रव्य जो काल संज्ञक है, उसको अप्रदेशी द्रव्य माना गया है, शेष पांच द्रव्य सप्रदेशी कथन किये गए हैं। क्योंकि-काल द्रव्य के प्रदेश नहीं होते हैं । केवल किसी अपेक्षा पूर्वक उसके भूत, भविष्यत् और. वर्तमान यह तीन विभाग हो जाते हैं। अपितु जो धर्मादि द्रव्य हैं वे सप्रदेशी होने से उनकी "पंचास्तिकाय" संज्ञा कथन की गई है । इन ६ द्रव्यों के लक्षण शास्त्रकार ने निम्न प्रकार से कथन किये है-जैसे कि गुणाणमासो दव्वं रागदव्वस्सिया गुणा । लक्खण पजवाणं तु उभयो अस्सिया भवे ॥ उत्तराध्ययन सूत्र २८ गा०६॥
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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