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________________ ( २०६ ) माण करने की अत्यन्त आवश्यकता है । क्योंकि परिमाण करने के पश्चात् आत्मा संतोष वृत्ति में आजाता है । यदि उक्त पदार्थों का सविस्तार स्वरूप देखना हो तो उपासकदशाङ्ग सूत्र के प्रथमाध्याय' और आवश्यक सूत्र का 'चतुर्थाध्याय को देखना चाहिए । उक्त दोनों सूत्रों में "दंतणविहि" सूत्र से लेकर २६ अंकवर्णन किये गए हैं अर्थात् दांतून करने का परिमाण करे। जैसेकि अमुक वृक्ष की दांतून करूंगा । उक्त सूत्र के पठन करने से यह भली भांति सिद्ध होजाता है किश्रावकवर्ग को प्रत्येक वस्तु का परिमाण करना चाहिए । किन्तु जो मांस और मद्य इत्यादि अभक्ष्य पदार्थ हैं उनका सर्वथा ही त्याग किया जाता है भोजन विधि का परिमाण करने के पश्चात् फिर १५ पंचदशं कर्मादान -- पाप कर्मों का परित्याग कर देना चाहिए जैसेकि कम्मओ य समणोवासरणं पणदसकम्मादाणाई जाणियव्वाई न समायरियव्वाई जहा इङ्गालकम्मे वरणकम्मे साडीकम्मे भाड़ीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिजे लक्खवाणिजे रसवाणिजे विसवाणिज्जे केसवाणिजे जंतपीलणकम्मे निल्लञ्छणकम्मे दवग्गिदावरण्यां सरदहतलावसोसण्या असईजणपोसण्या । उपासकदशाङ्गसूत्र अ १॥ भावार्थ-शास्त्रकारने १५ व्यापार इस प्रकार के वर्णन किये हैं, जिन के करने से हिंसा विशेष होती है । इसी वास्ते उन कर्मों के उत्पत्ति कारण को जानना तो योग्य है, परन्तु वे कर्म ग्रहण न करने चाहिएं। क्योंकि जो श्रावक आस्तिक और निर्वाणगमन की अभिलापा रखता है उसको वहुहिंसक व्यापारों से पृथक ही रहना चाहिए और जहाँ तक बन पड़े आर्य व्यापारो से ही अपने निर्वाह करने का उपाय सोचना चाहिए। यदि किसी कारण वश आर्य व्यापार उपलब्ध न होते हों तब वह दासकर्म आदि कृत्यों से तो अपना निर्वाह करले परन्तु मद्य और मांसादि अनार्य व्यापार कदापि न करे पंचदश कर्मादानों का नीचे संक्षेप से स्वरूप दिखलाते हैं । जैसे कि १ अंगारकर्म - यावन्मात्र अनि के प्रयोग से व्यापार किये जाते हैं वे सब अंगारकर्म में ही ग्रहण किये जाते हैं । जैसे- कोयले का व्यापार, ईटों का पकाना, लुहार का काम हलवाई का काम, धातु का काम इत्यादि । जो अपने वास्ते श्रावक को अनि का प्रयोग करना पड़ता है उसका उस को परित्याग नही है । जैसेकि - भोजनादि के वास्ते अग्नि का आरंभ करना पड़ता है तथा
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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