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________________ ( १६४ ) समणोवासगस्स णं भंते ! पुयामेव तसपाणसमारंभे पच्चक्खाए भवति पुढविसमारंभे अपच्चक्खाए भवइ से य पुढविं खणमाणेऽएणयरं तसं पाणं विहिंसेजा से णं भंते ! तं वयं अतिचरति ? यो तिणढे समठे नो खलु से तस्स अतिवायाए प्राउट्टति । समणोवासयस्स णं भंते ! पुन्बामेव वणस्सइसमारंभे पच्चक्खाए से य पुढवि खणमाणे अन्नयरस्स रुक्खस्स मूलं छिदेजा से णं भंते ! तं वयं अतिचरति ! णो तिणढे समठे नो खलु तस्स अइवायाए आउट्टति । भगवतीसूत्रशतक ७ उद्देश १ सू० ॥ २६३ ॥ वृत्ति-श्रमणोपासकाधिकारादेव "समणोवासगे" त्यादि प्रकरणम्, तत्र च "तसपाणसमारंभे" त्ति त्रसवधः नोखलु से तस्स अतिवायाए आउट्टइ" त्ति न खलु असौ "तस्य" त्रसप्राणस्य "अतिपाताय" वधाय "श्रावर्तते" प्रवर्त्तते इति “न संकल्पवधोऽसौ" संकल्पवधादेव च निवृत्तोऽसौ, न चैष तस्य संपन्न इति नासावतिचरति व्रतम्" भावार्थ-भगवान् गौतम स्वामी श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्रश्न करते हैं कि हे भगवन् ! किसी श्रमणोपासक ने त्रस जीवों के समारंभ का पहिले ही त्याग किया हुआ है, किन्तु पृथ्वीकाय के जीवों के समारंभ का उसे त्याग नहीं है। यदि पृथ्वी को खनता (खोदता) हुआ वह किसी अन्य त्रस प्राणी की हिंसा करदे तो क्या हे भगवन् ! वह अपने ग्रहण किये हुए व्रत को अतिक्रम करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान् कहते हैं कि-हे गौतम ! वह अपने ग्रहण किये हुए व्रत का अतिक्रम नहीं करता। क्योंकि उस का संकल्प त्रस जीव के मारने का नहीं है। अतएव वह अपने व्रत में दृढ़ है । पुनः प्रश्न हुआ कि हे भगवन् ! किसी श्रमणोपासक ने वनस्पतिकाय के समारंभ करने का परित्याग कर दिया, यदि फिर वह पृथ्वी को खनता हुआ किसी अन्य वृक्ष के मूल को छेदन करदे तो क्या वह अपने ग्रहण किये हुए व्रत का अतिक्रम कर देता है अर्थात् क्या इस प्रकार करने से उसका नियम टूट जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में श्रीभगवान् प्रतिपादन करते हैं कि हे गौतम ! वह पुरुष अपने ग्रहण किये हुए नियम को उल्लंघन नहीं करता । कारण कि-उस का संकल्प वनस्पति-छेदन का नहीं है। ___इसी प्रकार किसी समय मारने का संकल्प तो नहीं होता, परन्तु मारना पड़ जाता है । जैसेकि-कल्पना करो कोई वालक सम्यक्तया विद्याऽध्ययन नहीं करता तव उसके माता पिता तथा अध्यापकादि उसको शिक्षा के लिये मारते भी हैं । इस प्रकार की क्रियाओं के करने से उनके व्रत में दोष नहीं है
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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