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________________ ( १८७ ) मार्ग में स्थित रक्खें और प्राणी मात्र के हित करने में उद्यत रहें । जब इस प्रकार के पवित्र आत्माओं से धर्म-श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त होजाएगा तव शीघ्र कल्याण होजाएगा। जब मुनि वा उपासक के पास धर्म सुनने की जिज्ञासा से श्रोता उपस्थित हो, तव वे उसकी योग्यतानुसार धर्म कथा सुनाएं । शास्त्रकारों ने चार प्रकार की विकथा वर्णन की हैं। जैसेकि-स्त्रीकथा, भातकथा, राजकथा और देशकथा । किन्तु इन कथाओं से आत्मिक लाभ नहीं होसकता धर्मकथा के कथन करने का मुख्य प्रयोजन यही है कि-श्रोताजन को धर्म से प्रेम और संसार से निवृत्ति हो तथा उसके श्रवण करने से आत्मा निजस्वरूप में प्रविष्ट होजावे, मोहनीय कर्म क्षय वा क्षयोपशम भाव में आजावे, आत्मा संवेग और वैराग्य में रंगा जावे। जव आत्मा वैराग्य दशा में प्राजाता है, तब वह पदार्थों के तत्त्व के जानने की खोज में लगजाता है जिस से उस को सम्यक्त्त्व रत्न की प्राप्ति होजाती है। . "तत्त्वश्रद्धानं सम्यग् दर्शनम् तत्त्वों के ठीक स्वरूप को जानने का ही नाम सम्यग्दर्शन है। उत्तराध्ययन सूत्र के २८ वें अध्ययन में लिखा है कि ना दंसणिस्स नाणं नाणेण विणान हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ भावार्थ-जव तक सम्यग्दर्शन नहीं होता तब तक ज्ञान भी प्राप्त नहीं होसकता । ज्ञान के विना चारित्र के गुण भी उत्पन्न नहीं होसकते अगुणी कामोक्ष नहीं है और विना मोक्ष से निर्वाणपदकी प्राप्ति नहीं होसकती। अतएव सव से प्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए यत्न करना चाहिए श्रमण महात्मा के प्रताप से सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति होजाने पर प्रत्येक भव्य आत्मा श्रावक के १२ व्रतों (नियम) के धारण करने योग्य होजाता है । जीव, अजीव, पुण्य, पाप, श्राश्रव, सम्वर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन नव तत्वों के स्वरूप को ठीक जानने का नाम सम्यक्त्व है तथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल जो उक्त ६ द्रव्यों के स्वरूप को भली प्रकार जानता है उसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । अब प्रश्न यह उपस्थित होता है कि सम्यक्त्व रत्न प्राप्त होने के पीछे उस सम्यग्दृष्टि आत्मा के कौन २ लक्षण प्रतीत होते हैं ? जिन से जाना जाए कि इस पवित्र श्रात्मा को उक्त रत्न की प्राप्ति हो चुकी है । इस प्रश्न का उत्तर यह है जब किसी भव्य श्रात्मा को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होजाती है तव उस के अनंतानुवंधि क्रोध, अनंतानुवंधि मान, अनंतानुवंधि माया और अनंतानुवन्धि
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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