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________________ जिस प्रकार स्वदेशी वेप के विषय में कहा गया है उसी प्रकार अन्य भाषादि स्वदेशी प्राचारों के विषय में भी जानना चाहिए । इसी वास्ते ऊपर कहा जा चुका है कि प्रसिद्ध और प्रशंसनीय देशाचार के पालन करने वाला पुरुष सामान्यधर्म पालन करता हुआ विशेष धर्म के योग्य हो जाता है । क्यों कि-जो किसी की भी निंदा नहीं करता उसका आत्मा सदैव काल शांति में रहा करता है। यदि किसी अधिकारी व्यक्ति की निंदा की नावे तो उसका फल तत्काल उपलब्ध हो जाता है, यदि किसी सामान्य व्यक्ति की निंदा की जाए तो उसका परिणाम प्रायः कुछ समय के पश्चात् उपलब्ध हो जायगा । अतएव उक्त धर्म का पालन करने वाला व्यक्ति किसी की भी निंदान करे । अपितु निंदादि व्यसनों को छोड़ कर सदैव काल सदाचारी पुरुपों की संगति करनी चाहिए । जव कुसंग का त्याग किया जायगा और सुसंगति में सदा चित्तवृत्ति लगी रहेगी, तव श्रात्मा इस क्रिया के महत्व से विशेप्रधर्म में प्रवृत्त हो सकेगा। आगे ग्रन्थकार ने लिखा है यथा "तथा मातापितृपूजेति" इस सूत्र का श्राशय है कि-माता पिता की पूजा करनी चाहिए । कई लोग कह देते हैं कि-माता पिता की पूजा क्या पुष्पों और घंटात्रों द्वारा होनी चाहिए ? इस प्रकार के कुतुओं के निराकरण के वास्ते उक्त सूत्र के वृत्ति करने वाले लिखते हैं कि मातापित्रो जननीजनकयो पूजा त्रिसध्य प्रणामकरणादि । यथोक्तम्__ पूजनं चाऽस्य विजेयं त्रिसध्य नमनक्रिया । तस्यानवसरेऽप्युच्चैश्चैतस्यारोपितस्स तु ॥ अस्येति-माता पिता कुलाचार्य एतेषा ज्ञातयस्तथा। वृद्धा धमापदेटारो गुरुवर्ग सता:मत ।। इति श्लोकोतस्य गुरुवर्गस्य । अभ्युत्थानाठियोगस्य तदन्ते निभृतासनम् । नामग्रहश्च नास्थाने नावर्णश्रवणं कचित् ॥३१॥ भावार्थ-मातापिता को पूजा से अभिप्राय यह है कि त्रिकाल प्रणामादि करके भक्ति करनी चाहिए । क्योंकि-कहा गया है कि-अवसर विना फिर ऊंच भावों से चित्त में प्रारोपण किया हुआ गुरुजन (वृद्धवर्ग) वर्ग को त्रिकाल प्रणाम करना यही उन का पूजन है। अव प्रश्न यह उपस्थित होता है कि-गुरुजनवर्ग में किस २ को गिनना चाहिए ? इसके उत्तर में कहा है कि-माता, पिता, कुलाचार्य, (शिक्षागुरु), उनके सगे सम्बन्धी, वृद्ध और धर्म का उपदेश करने वाले । इन्ही को सन्पुरुषों ने गुरु माना है। गुरुवर्ग को किस प्रकार मान देना चाहिए ? अव इसी-विपय में कहते हैं-गुरु जन आवे तो खड़े हो जाना चाहिए, उनके सामने जाना चाहिए, आदि शब्द से सुख साता पूछनी, उनके पास निश्चल होकर बैठना चाहिए, अस्थान में (अघाटित स्थान)
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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