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________________ ( १७४ ) का पालन करें जिन कुलों में कुलपरम्परा से मांस भक्षणादि का निषेध हो उसे न छोड़ें तथा जिन कुलों में न्याय पूर्वक शुद्ध आचरण चला आता हो उस न्यायमार्ग का उलंघन न करें । न्यायोपात्तं हि वित्तमुभयलोकहितायेति ॥ (धर्म० अ० १। सू० ४ ॥) भावार्थ-न्याय से उत्पन्न किया हुआ ही धन इस लोक और परलोक में हित करने वाला होता है, किन्तु अन्याय से उपार्जित द्रव्य प्रायः व्यभिचारादि कुकृत्यों में ही विशेष व्यय किया जाता है, जिसका परिणाम इस लोक में वह दुःखप्रद हो जाता है, जैसेकि-शरीर का गल जाना, धन का नाश, कुल को कलंक तथा धर्म से पराङ्मुखता, ये सब वाते प्रत्यक्ष में देखी जाती हैं। यदि कोई कहे कि-अन्याय से उत्पन्न किये हुए द्रव्य का प्रकाश वड़ा विस्तीर्ण देखा जाता है तो इस बात का समाधान यह है कि-जिस प्रकार "विघ्यायत" बुझते हुए दीपक का प्रकाश चिरस्थायी नहीं होता, उसी प्रकार अन्याय से उपार्जित धन अस्थिर होता है। इसमें कोई भी सन्देह नहीं किवुझता हुआ दीपक एक वार तो प्रकाश अवश्यमेव कर देगा, किन्तु तत्पश्चात् सर्वत्र अंधकार विस्तृत हो जायगा । ठीक यही व्यवस्था अन्याय से उत्पन्न किये हुए धन के विषय में जाननी चाहिए । जव वह धन इस लोक में सुखप्रद नहीं हो सकता तो भला परलोक में वह क्या सुखप्रद होगा? क्योंकि व्यभिचार का अंतिम फल परलोक में दुर्गति की प्राप्ति लिखा है। ___ यदि कोई कहे कि-- वह अन्यायोपार्जित दव्य धार्मिक कार्यों में व्यय किया जाय तब तो पुण्य का अनुबंध अवश्य हो जायगा। इसंशंका का समाधान यह है कि-अन्याय का द्रव्ययदि धार्मिक कार्यों में व्यय किया जाएगा तो वह धार्मिक कार्यों का महत्व स्वल्प कर देगा। जैसे-यदि ऐसे कहा जाय कि अमुक धार्मिक संस्था रिश्वत के द्रव्य से स्थापित हुई है और चोरी के द्रव्य से चलती है तव देखें उस धार्मिक संस्था की धार्मिक शिक्षाओं का कैसा महत्व बढ़ता है ? यह तो प्रत्यक्ष हेतु है। साथ ही अन्याय के द्रव्य के कारण विद्यार्थियों के सदाचार में अवश्यमेव परिवर्तन हो जायगा,उनके भाव व्यभिचारआदि दुर्व्यसनों की ओर झुकने लग जाएंगे ।अतएव सिद्ध हुआ कि अन्याय का द्रव्य दोनों लोकों में हित करने वाला नहीं होता, किन्तु विपत्ति का कारण है। इस लिए अन्याय से कदापि धन उत्पन्न नहीं करना चाहिए। जव संसार में न्याय पूर्वक धन उत्पन्न किया गया, तव फिर गृहस्थ लोगों की काम संज्ञा उत्पन्न हो जाती है। अव प्रकरण-कर्ता विवाह के विषय में कहते हैं
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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