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________________ ( १७२ ) हैं। एवं जिस से अर्थ निकलता हो, जो अर्थों की सूचना करता हो, अर्थ को देता हो वा जिस के द्वारा अर्थ जाना जाता हो, अर्थ स्मरण किया जाता हो, अर्थ को सीता हो उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र के अभिप्राय का नाम अर्थ है अर्थात् जिस के द्वारा पदार्थों का पूर्णतया बोध होजावे वह अर्थ कहलाता है सो इस प्रकार एक तो सूत्ररूप श्रतधर्म है और दूसरा अर्थरूप श्रुतधर्म है। सारांश यह है कि-सम्यक् श्रत का पठन. पाठन करना वा कराना श्रतधर्म है। श्रत समाधि द्वारा श्रात्मा को परम शांति की प्राप्ति होजाती है, जैसेकिजव विधि पूवक श्रुताध्ययन किया जायगा तब आत्मा को भली भांति पदार्थों का बोध हो जायगा । जिस का परिणाम यह होगा कि उस आत्मा कोसम्यग् ज्ञान की प्राप्ति होजाएगी, फिर उसी के प्रताप से उसकी आत्मा ज्ञानसमाधि से युक्त होकर धर्म मार्ग में ठीक स्थिरीभूत होकर अन्य अात्माओं को धर्ममार्ग में स्थिर करने में समर्थ होगी। इस लिए श्रुत धर्म का अवलम्बन अवश्यमेव करना चाहिए । यद्यपि श्रुत शब्द एक ही है, परन्तु इसके भी दो भेद हैं। १ मिथ्याश्रुत और-२ सम्यग् श्रुत । सो मिथ्याश्रुत तो प्रायः प्रत्येक प्राणी अध्ययन किये जा रहा है, क्योंकि-जिस श्रुत में पदार्थों का मिथ्या स्वरूप प्रतिपादन किया गया हो और मोक्ष मार्ग का किंचिन्मात्र भी यथार्थ वर्णन न हो उसी को मिथ्याश्रुत कहते हैं । जैसे-“शब्दगुणकमाकाशम्' आकाश का शब्द गुण है, सो यह कथन असमंजस है । क्योंकि-आकाश अमूर्तिक पदार्थ है और शब्द मूर्तिवाला है । सो अमूर्तिक पदार्थ का गुण मूर्तिमत् कैसे हो सकता है ? तथा गुणी के प्रत्यक्ष होने से उस की सिद्धि हो जाने पर गुण भली भाँति सिद्ध किया जाता है; परन्तु यहां पर आश्चर्य से कहा जाता है कि-गुण प्रत्यक्ष और गुणी परोक्ष, देखिये, यह कैसा अद्भुत न्याय है? अतएव आकाश का लक्षण (गुण) अवकाश रूप है, नतु शब्द । किन्तु शब्द पुद्गल का धर्म (गुण ) है । इसी लिये जिस श्रुत में पदार्थों का यथार्थ भाव वर्णन न किया गया हो, वह सब मिथ्याश्रुत होता है। परन्तु जिसश्रुत में पदार्थों का सम्यग् रीति से वर्णन किया गया है, वही सम्यग् श्रत है। जैसे द्रव्य गुणपयार्य वाला माना जाता है तथा सत् द्रव्य का लक्षण है, परन्तु ' उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" सत् वह होता है जो उत्पाद और व्यय धर्म वाला भी हो जैसे पूर्व पर्याय का व्यय और उत्तर पर्याय का उत्पाद किन्तु द्रव्य दोनों दशाओं में विद्यमान रहता है। जिस प्रकार किसीने सुवर्ण के कंकण की चूड़ियां वनाई सो जब चूडियां तैय्यार हो गई तव कंकण के आकार का तो व्यय हो गया, चूडियों की आकृति का उत्पाद हुश्रा, परन्तु सुवर्ण दोनों दशाओं में सत् (विद्यमान) है। इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ के विषय में जानना चाहिए ।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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