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________________ अब फिर भी संघ की प्रकाशकता होने स स्तुतिकार सूर्य की उपमा से संघ की स्तुति करते हैं परतित्थिय गह पह नासगस्स तवतेयदित्तेलसस्स . नाणुजोयस्स जए भदं दमसंघसूरस्स-॥१०॥ वृत्ति-परतीर्थिकाः-कपिलकणभक्षाक्षपाद-सुगतादिमतावलम्विनः त एव ग्रहाः तेपां या प्रभा-एकैकदुर्नयाभ्युपगमपरिस्फूर्तिलक्षणा तामनन्तनयसङ्कलप्रवचनसमुत्थविशिष्टज्ञानभास्करप्रभावितानेन नाशयति-अपनयतीति परतीर्थिकग्रहप्रभानाशकः तस्य तथा तपस्तेज एव दीप्ता-उज्ज्वला लेश्या-भास्वरता यस्य स तथा तस्य तपस्तेजोदीप्तलेश्यस्य, तथा शानमेवोद्योतो-वस्तुविषयप्रकाशो यस्य स तथा तस्य ज्ञानोद्योतस्य 'जगति' लोके भद्रं कल्याणं भवत्विति शेषः, दमः-उपशमः तत्प्रधानः सङ्घः सूर्य इव सङ्घसूर्यः तस्य दमसङ्घसूर्यस्य ॥ भावार्थ-कपिल कणभक्ष अक्षपाद सुगतादि मतावलम्बी रूप जो ग्रह हैं, उनकी जो एक एक दुर्नय के ग्रहण करने हारी प्रभा है उस प्रभा को अनन्तनय रूपप्रवचन से विशिष्ट ज्ञानभास्कर की प्रभा द्वारा परतीर्थिक रूप ग्रहों की प्रभा को नाश करने वाले तप रूप तेज से जिसकी दीप्त लेश्या (प्रभा)है उस श्रीसंघ की, तथा जिसका ज्ञान ही उद्योत है अर्थात् अपने ज्ञान रूप प्रकाश से वस्तुओं के प्रकाश करने वाले उनका लोक में कल्याण हो । जिसमें उपशम प्रधानहै,सो श्रीसंघ सूर्य-भास्करवत् जो प्रकाश करने वाला है, उस दम संघसूर्य की जय हो। इस गाथा का सारांश इतना ही है कि-जिस प्रकार ग्रहों की एकदेशी प्रभा के नाश करने वाला सूर्य है, ठीक उसी प्रकार श्रीसंघरूप सूर्य पाखंडमत की प्रभा के नाश करने वाला है तथा जिस प्रकार सूर्य दीप्तलेश्या वाला है, उसी प्रकार श्री संघरूपसूर्य तपस्तेज से दीप्त (उज्ज्वल) लेश्या वाला है, वा जिस प्रकार सूर्य स्वप्रकाश से अन्य वस्तुओं को प्रकाशित करता है ठीक उसी प्रकार श्रीसंघरूप सूर्य अपने सम्यग् शान द्वारा लोक में प्रकाश करने वाला है। अतः संघरूपसूर्यजगत् में कल्याण के करनेवाला होताहै। साथ ही श्रीसंघ में उक्तसूर्य से एकविशेषण विशेष पाया जाताहै। जैसेकिश्रीसंघ में कषायों का उपशम करना यह गुण विशेष है। अतः उस दमसंघसूर्य की सदा जय हो अर्थात् श्रीसंघ रूप सूर्य सदा ही अपने सम्यग् ज्ञान द्वारा अंगत् में प्रकाश करता हुआ जय करता रहे । सो जिस प्रकार धर्म पक्ष में श्रीसंघ अनेक शुभोपमाओं को धारण किये हुए रहता है, उसी प्रकार राष्ट्रीय संघ भी सर्वत्र देशों में न्याय मार्ग का प्रचार करता हुआ सदैव काल कल्याण
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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