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________________ (.१४७ ) त्ति गुरुभिर्दमं ग्राहिताः विनयिता इत्यर्थः-इदमेव नैर्ग्रन्थप्रवचनं "पुरओकाउं" त्ति पुरस्कृत्य-प्रमाणीकृत्य विहरंतीति, क्वचिदेवं च पठ्यते-"बहूणं श्रापरिया" अर्थदायकत्वात् "वहूणं उवमाया" सूत्रदायकत्वात्, बहूनां गृहस्थानां प्रव्रजितानां च दीप इव दीपो मोहतमःपटलपाटनपटुत्वात् द्वीप इव वा द्वीपः संसारसागरनिमग्नानामाश्वासभूतत्वात् “ताणं" ति त्राणमनर्थेभ्यो रक्षकत्वात् "साणं" त्ति शाणमर्थसम्पादकत्वात् "गइ" ति गम्यत इति गतिरभिगमनीया इत्यर्थः-पइत्ति प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा श्राश्रय इत्यर्थः। भावार्थ-यद्यपि उक्त सूत्र का अर्थ संस्कृत भाषा में वृत्तिकार ने स्फुट कर दिया है तथापि देशी भाषा में उक्त सूत्र का अर्थ सामान्यतया दिखलाया जाता है । औपपातिक सूत्र में श्रमण भगवान् श्रीमहावीर स्वामी और श्रीभगवान् के मुनिसंघ का विस्तृत रूप से वर्णन किया है जिस के उपोद्घात के १६व सूत्र का यहां पर उल्लेख है। इस सूत्र में श्री भगवान के साथ रहने वाले मुनियों के गुणों का वर्णन है जैसेकि-अवसर्पिणी काल के चतुर्थ दुषमसुषम नामक काल में जव श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विचरते थे तव श्रमण भगवान महावीर स्वामी के बहुत से शिष्य स्थविर भगवान्,माता पिता के पक्ष से निष्कलंक, बल, (उत्तमसंहननयुक्त) रूप, विनय, शान, दर्शन, चरित्र सम्पन्न, पाप कर्म से लज्जा करने वाले, अल्पोपधि के धारण से वा गौरव के परित्याग से लाघव सम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वचन सौभाग्य से युक्त, इतना ही नहीं किन्तु परम ख्यात, क्रोध, मान, माया, लोभ, इन्द्रिय, निद्रा तथा परीपह जीतने वाले,जीवन आशा और मृत्यु भय से रहित, व्रत तथा व्रतप्रधान गुण,क्रियाकलाप, चरित्र,निग्रह,निश्चय,आर्जव,मार्दव,लाघव,तान्ति और मुक्ति प्रधान, प्रज्ञप्ति श्रादि विद्या के होने से विद्या प्रधान, हरिणगमेपि श्रादि देवों के आवाहन करने में समर्थ होने से मंत्र प्रधान, वेदों (श्रागमों) के ज्ञाता, तथा लौकिक शास्त्रों के जानने वाले, ब्रह्मचर्य (कुशलानुष्ठान) में प्रधान, नीति में प्रधान, अभिग्रह (नियम विशेप ) करने में प्रधान, सम्यग् वाद करने में प्रधान, द्रव्य से शारीरिक शौच, भाव से निर्दीप संयम क्रिया करनेवालों में प्रधान, सत्कीर्ति चा गौर शरीर वाले, तथा सत्प्रज्ञावाले, लजालु, तपस्वी और जितेन्द्रिय, प्राणीमात्र के प्रेमी, तीन योगों को शुद्ध करने वाले, निदानकर्म रहित, औत्सुक्य भाव से वर्जित, संयम वृत्ति से मनको वाहिर न करने वाले और अतुल मनोवृत्ति, श्रामण्य भाव अनुरक्त, विनयी, निर्ग्रन्थ, प्रवचन के पठन पाठन करने वाले अतएव निर्ग्रन्थ, प्रवचन को प्रमाणभूत करके विचरने वाले । (पुरस्कृत्य-प्रमाणीकृत्य विहरंति)।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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