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________________ ( १३८ ) वा क्षयोपशमभाव उत्पन्न हो उसी प्रकार वर्त्तना चाहिए । २४ दर्शन संपन्नता - जिस प्रकार मिथ्यादर्शन से आत्मा पराङ्मुख होकर केवल सम्यग् दर्शन में ही श्रारूढ़ होजावे उसे दर्शनसंपन्नता कहते है । यद्यपि सम्यग् दर्शन, मिथ्यादर्शन, और मिश्रदर्शन तीन प्रकार से दर्शन प्रतिपादन किया गया है परन्तु इस स्थान पर केवल सम्यग् दर्शन से संपन्न होना और मिथ्यादर्शन तथा मिश्रदर्शन का सर्वथा वेत्ता होना उसी का नाम दर्शन संपन्नता है । २५ चारित्रसंम्पन्नता—जब आत्मा दर्शनयुक्त होता है तब फिर वह चारित्र में पूर्णतया दृढ़ होजाता है । चारित्र उसी का नाम है जिस के द्वारा कर्मो का चय ( राशी) रिक्त (खाली) होजावे सो वह उपाधिभेद से पांच प्रकार से प्रतिपादन किया गया है जैसेकि—सामायिक चारित्र १ छेदोपस्थापनीय चारित्र २ परिहारविशुद्धि चारित्र ३ सूक्ष्म सांपरायिक चारित्र ४ यथाख्यात चारित्र ५ । सामायिक चारित्र उसका नाम है जिसके करने से सावद्ययोग की निवृत्ति होजावे और ज्ञान दर्शन तथा चारित्र का लाभ हो। सामायिक के पुनः दो भेद हैं । स्तोककालप्रमाणचारित्र १ और यावज्जीव पर्यन्त सामायिक २ । यावज्जीव पर्यन्त का चारित्र सर्वत्रति मुनियों का ही हो सकता है । परंच स्तोककालका सामायिक चारित्र दो करण तीन योग से गृहस्थ भी ग्रहण कर सकते हैं । प्रथम तीर्थंकर और अंतिमदेव के समय छेदोपस्थापनीय चारित्र होता है जो सामायिक चारित्र के पश्चात् पांच महाव्रत रूप आरोपण किया जाता है। उस समय पूर्व पर्याय का व्यवच्छेदकर उत्तर पर्याय का स्थापन किया जाता है जिसको बड़ी दीक्षा कहते है । वह ७ दिन ४ मास वा छै मास के पश्चात् प्रतिक्रमण के ठीक जाने पर जाती है । परिहार विशुद्धि चारित्र उस तप का नाम है जिस के करने वाले मुनि गच्छ से पृथक् होकर १८ मास पर्यन्त तप करते हैं जैसेकि - प्रथम चार भिक्षु ६ मास पर्यन्त तप करने लग जाते हैं, द्वितीय चार भिक्षु उनकी सेवा (वैयानृत्य ) करते रहते हैं एक उनमें धर्मकथादि क्रियाओं में लगा रहता है । जब प्रथम चार मुनियों का तप कर्म समाप्त होजाता है तब दूसरे चार भिक्षु ६ मास तक तप करने लगते हैं पहिले चार उनकी सेवा में नियुक्त किये जाते हैं किन्तु धर्मकथादि क्रियाओं में प्रथम मुनि ही काम करता रहता है। जब वे भी ६ मास पर्यन्त तपकर्म समाप्त कर लेते हैं तव धर्म कथा करने वाला मुनि ६ मास तक तप करने लग जाता है । उन आठ मुनियों में से एक भिक्षु धर्मकथा के लिये नियुक्त किया जाता है । सात भिक्षु तप कर्म करने वाले भिक्षु की सेवा करते रहते हैं । इस प्रकार ६ मुनि १८ मास पर्यन्त परिहार
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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