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________________ " ( १२२ ) सो जो उक्त सूत्रों का श्राप विधिपूर्वक अध्ययन करता है और अपने सुयोग्य शिष्य वर्ग को अध्ययन कराता है उसे उपाध्याय कहते हैं । उसके २५ गुण उपरोक्तानुसार कथन किए गए हैं। इन सूत्रों के अतिरिक्त अन्य जो कालिक वा उत्कालिक शास्त्र हैं उन सब को विधिपूर्वक पठन पाठन कराना उपाध्याय का मुख्य कर्त्तव्य है क्योंकि पठन पाठन के लिये ही गच्छ में उक्त पद नियुक्त किया गया है जिसके प्रयोग से श्री संघ में ज्ञान का प्रकाश और धर्म में दृढ़ता हो जाती है । यह बात प्रसिद्ध है कि यावत्काल ज्ञान का प्रकाश नहीं होता तावत्काल पर्यन्त श्रात्मा अंधकार से ही घिरा रहता है । प्रकाश ठीक हो जाने से ही वह अपना और पर का कल्याण कर सकता है अतएव शास्त्रीय ज्ञान अवश्यमेव संपादन करना चाहिए । यदि कोई यह पूछे कि - जब आचार्य और उपाध्याय सम्यग्तया गच्छ की सेवा करते हैं तो उन्हें किस फल की प्राप्ति होती है ? इसके उत्तर में कहा जासकता है कि यदि आचार्य और उपाध्याय अपने कर्त्तव्य को समझते हुए सम्यग्तया गच्छ की सेवा करें तो वे कर्मक्षय करके मोक्षपद प्राप्त कर सकते हैं । यथा उपाध्याय द्वारा आयरिय उवज्झाएणं भंते ! सविसयसि गणसि मिलाए सागरहमाणे गिलाए उबागिरहमाणे कतिहिं भवग्गहहिं सिज्झति जाव अंतं करेति । गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति अत्थे गतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति तच्चं पुण भवग्गहणं गातिकमति ॥ भगवती सूत्र शत्तक ५ उद्देश ६ सूत्र संख्या २११ ॥ टीका-आयरियेत्यादि -- आयरिय उवज्झाएरांति - प्राचार्येण सहोपाध्याय आचार्योपाध्यायः " स विससि" त्ति स्व विषये" अर्थदान सूत्रदान लक्षणे "गं" ति शिष्यवर्ग "गिलाए" त्ति अवेदन संगृह्णन् “उपगृहन्" उपप्रम्भयन्, द्वितीय तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देव भवान्तरितो दृश्यः चारित्रचतोऽनन्तरो देवभव एव भवति न च तत्र सिद्धिरस्तीति ॥ अर्थ - श्री गौतम स्वामी जी भगवान् महावीर स्वामी जी से पूछते है कि हे भगवन्! श्राचार्य और उपाध्याय अपने गच्छ को श्रम के बिना, अर्थदान वा सूत्रदान के द्वारा सम्यग्तथा ग्रहण करते हुए और गच्छ की सम्यगूतया रक्षा करते हुए कितने भव लेकर सिद्ध होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में श्री भगवान् कहते हैं कि - हे गौतम! आचार्य और उपाध्याय सम्यगतया गच्छ की पालना करते हुए कोई २ तो उसी भव में निर्वाणपद की प्राप्ति कर लेते है, कोई २ द्वितीय जन्म में मोक्ष गमन कर लेते हैं परन्तु तृतीय जन्म तो अतिक्रम नहीं करते । इस सूत्र से यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि- आचार्य और उपाध्याय
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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