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________________ ( ११२ ) आचारांग १ सूत्रकृतांग २ स्थानांग ३ समवायांग ४ भगवत्यंग ५ धर्मकथांग ६ उपासकदशांग ७ अन्तकृतदशांग ८ अनुत्तरोपपातिक ६ प्रश्नव्याकरणांग १० विपाक ॥११॥ ___ यह ११ अंग शास्त्रों के नाम है। अव इन के प्रकरण विषय में कहा जाता है जैसे कि १ आचारांग सूत्र के दो श्रुत स्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतके नव अध्ययन और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १६ अध्ययन हैं इस श्रुतके ८५ उद्देशनकाल हैं और इस श्रुत में पंचाचार का बड़ी विचित्र रचना से विवेचन किया गया है जैसेकिज्ञानाचार-(शान विपय) दर्शनाचार (दर्शनविषय) चारित्राचार (चारित्र विषय) तपाचार (तपविषय) बलवीर्याचार (वलवीर्य विषय ) गोचर्याचार (भिक्षाविधि) विनयाविचार (विनय विपय) विनय करने की शिक्षा तथा कर्मक्षय करने की शिक्षा,भापाबोलने की विधि,ना वोलने योग्य भाषा विषय सविस्तर कथन किया गया है जैसोकि-अमुक भाषा साधु के वोलने योग्य है और अमुक भाषा नहीं है तथा चारित्र का वड़ी उत्तम विधि से वर्णन किया गया है । उसीप्रकारजो साधुकी क्रियाविधि है उसको भी वड़ी प्रधान विधि से प्रतिपादन किया है । साथ ही माया (छल) विधि के करने का निपेघ किया गया है क्योंकि धर्म की साधना ऋजु भावों से ही होसकती है नतु कुटिल वुद्धि से । अतएव इस श्रुतमें प्रायः साधुओंका आचार बड़ी प्रिय और सुन्दर शैलीसे वर्णन किया गया है । साथ ही श्रीश्रमण भगवान् महावीर स्वामी की जीवनी भी संक्षिप्त शब्दों में दीगई है। इस श्रुत के संख्यापूर्वक ही सर्व वर्णादि हैं और औपपातिक सूत्र इसी श्रुतका उपांग है उसकी उपोद्घात में कुणिक राजा की श्रीभगवान् महावीर स्वामी प्रति जो हार्दिक भक्ति थी उसका भी दिग्दर्शन कराया गया है और अंत में २२ प्रश्नोत्तरों में एक मनोरंजक प्रकरण दिया गया है जिससे प्रत्येक प्राणीके आचरणानुसार उसकी भावी गति का सहज में ही ज्ञान हो सकता है क्योंकि भूमि के शुद्ध होने पर फिर कृषिकर्म की क्रियाएँ की जासकती हैं। उसी प्रकार सदाचार के ठीक हो जाने से ही अन्य गुणों की सहज में ही प्राप्ति हो सकती है। इस मूल सूत्र के १८ सहस्त्र (१८०००) पद कथन किये गये हैं "मूलतोऽधिकार समारभ्य तत्समाप्तिं यावत् पदमित्युच्यते” अर्थात् जिस प्रकरण का आरंभ किया गया है जव उस प्रकरण की समाप्ति हो जावे उस की पदसंज्ञा है। प्रत्येक व्यक्ति को सदाचार की पुष्टि के लिये योग्यतानुसार इस श्रुत का पठन पाठन कराना चाहिए। १-द्वादशवा दृष्टिवादाङ्ग है उसका अाजकल व्यवच्छेद है।
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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