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________________ ( १०५ ) अर्थ--(प्रश्न ) दोप निर्घातना विनय किसे कहते हैं ? ( उत्तर ) हे शिष्य ! दोप निर्घातना विनय के चार भेद प्रतिपादन किए गए हैं जैसे किक्रोधी के क्रोध को दूर करना चाहिए १ दुष्ट की दुष्टता को दूर करना चाहिए२ कांक्षित पुरुष की आकांक्षा पूरी करनी चाहिए ३ क्रोधादि से रहित शुद्ध और पवित्र आत्मा वनानी चाहिए अर्थात् सुप्रणिहितात्मा होना चाहिए इसी का नाम दोपनिर्घातना विनय है ॥ __साराश-शिप्य ने प्रश्न किया कि-हे भगवन् ! दोप निर्घातना विनय किसे कहते हैं और इस के कितने भेद हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में गुरु कहने लगे कि-हे शिष्य ! दोष निर्घातना विनय उसी का नाम है जिस के द्वारा आत्मा से दोपों को निकाल वाहिर किया जाए इसके मुख्य चार भेद हैं जैसे कि-जिनको क्रोध करने का विशेष स्वभाव पड़ गया हो उनको क्रोधका कटुफल दिखलाकर तथा मृदु और प्रिय भाषण द्वारा क्रोध को दूर कर देना चाहिए अर्थात् जिस प्रकार उनका क्रोध दूर हो सके उसी उपाय से उनका क्रोध दूर कर देना चाहिए। जिस प्रकार विष भी युक्तियों से औषधी के रूप को धारण करता हुआ अमृतरूप हो जाता है ठीक उसी प्रकार क्रोधरूपी विपको शास्त्रीय शिक्षाओं द्वारा शांत करना चाहिए तथा जिस प्रकार दावानल को महा मेघ अपनी धारा द्वारा शान्त कर देता है ठीक उसी प्रकार शास्त्रीय उपदेशों द्वारा क्रोध को शान्त कर देना चाहिए १ इसी प्रकार जो व्यक्ति क्रोध:मान, माया और लोभ द्वारा दुष्टता को धारण किये हुए हो उस की भी शास्त्रीय शिक्षाओं द्वारा दुष्टता दूर कर देनी चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि जिस व्यक्ति को दुष्टता धारण करने का स्वभाव पड़ गया हो उस के स्वभाव को शान्त भावों से या शिक्षाओं द्वारा ठीक करना चाहिए २ । इसी प्रकार संयम निर्वाह के लिए जिसको जिस वस्तु की आकांक्षा हो उसकी आकांक्षा पूरी कर देनी चाहिए। अन्न, पानी.वस्नः पात्र वा पुस्तक की आकांक्षा अथवा विहारादि की आकांक्षा सो जिस प्रकार की संयम विषयक आकांक्षा हो उसकी पूर्ति में वरावर सहयोग देना चाहिए तथा यदि किसी के मन में प्रवचन के विषय शंका हो तो उसकी शंका का समाधान भली प्रकार से कर देना गहिए क्योंकि शास्त्र मे लिखा है कि-शंकायुक्त आत्मा को कभी भी समाधि की प्राप्ति नहीं हो सकती, अतएव शंका अवश्यमेव छेदन करनी चाहिए । शंका रहित होकर फिर वह श्रात्मा शास्त्रोक्त क्रियाओं में निमग्न होता हुश्रा क्रोध, मान, माया और लोभरूप अंतरंग दोपों से विमुक्त होकर सुप्रणिहितात्मा हो जाता है अर्थात् उसका आत्मा सकल दोषों से रहित होकर शुद्ध और पवित्र होजाता है । इसीका नाम दोपनिर्घातना विनय है ॥
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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