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________________ हो रहे हैं वे सर्वज्ञानयुक्त आत्मा के ही उत्पन्न किये हुए हैं अतएव अज्ञानता ही श्रेयस्कर है इस के मत में अज्ञानता को ही परमोच्च पद दिया गया है इतना ही नहीं किन्तु अज्ञानी बनने का प्राणीमात्र को वे उपदेश करते रहते हैं। और सदैवकाल ज्ञानका निषेध और अज्ञानता की प्रशंसा करना यही उनका मुख्योद्देश होता है। चतुर्थ वैनयिकवादी हैं-उनका मन्तव्य है सब की विनय करनी चाहिए। इनके हां योग्य वा अयोग्य व्यक्तियों की लक्ष्यता नहीं की जाती, परन्तु ऊंच वा नीच सब की विनय करना ही बतलाया जाता है, यद्यपि विनयधर्म सर्वोत्कष्ट प्रतिपादन किया गया है परन्तु योग्य और अयोग्य की लक्ष्यता करना भी परमावश्यक है अतएव यदि योग्यता पूर्वक विनय किया जायगा,तव तो उसे सम्यग् दर्शन कहा जायगा । यदि योग्यता से रहित हो कर विनय करता है तब वह उपहास का पात्र बन जाता है, जैसे कि-कोई पुरुष अपनी माता की विनयभक्ति करता है वह मनुष्यमात्र में विनीत और सुशील कहा जाता है, किन्तु जो सब के सन्मुख वैश्या वा अपनी धर्मपत्नी श्रादि के चरणों पर मस्तक रखता है, इतना ही नहीं किन्तु उनकी आज्ञा का उल्लंघन किसी समय में भी नहीं करता, वह मनुप्य लोक में उपहास का ही पात्र बनता है अतएव सिद्ध हुआ, कि-विनय भी योग्यता से ही शोभा देती है जिस कारण इसे धर्म का एक अंग गिना जाता है, विनय वादिके मत में योग्यता का विचार नहीं किया गया है। अतः वह मत भी त्याज्यरूप ही माना गया है । जब इनके मत को सर्वप्रकार से जान लिया । तव षद् दर्शनों के मत का भी प्राचार्य पूर्णवेत्ता हो, और उनके कथन किए हुए तत्वों को सूक्ष्मबुद्धि से अन्वीक्षण करे, परन्तु षट् दर्शनों की संख्या में कई मतभेद हैं। पट् दर्शन समुच्चय की प्रस्तावनामें दामोदर लाल गोस्वामी लिखते हैं कि दर्शनगतषसंख्याविधायां तु तैर्थकानां भूयांसि मतानि केचित् खलु पूर्वोत्तरमीमांसाद्वयं निरीश्वरसश्वरसांख्यद्वयं, षोडशसप्तपदार्थाख्यायिन्यायद्वयमितिमिलितानि दर्शनषद्कं प्राहुः । अन्ये पुनः सौत्रान्तिका वैभाषिकयोगाचारमाध्यमिकप्रभेदवौद्धेनजैनलौकायतिकाभ्यां च पूर्व दर्शनषट्कं द्वादशदर्शनी प्रति जानते । परेतु मीमांसकसांख्यनैयायिकबौद्धजैनचार्वाकाणां दर्शनाति षड्दर्शनीतिसंगिरन्ते । प्रकृतनिवन्धकारस्तुबौद्धं नैयायिकं सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा जैमिनीयञ्च नामानि दर्शनानाम मून्य हो। अपराणि चापि दर्शनान्येकेऽमन्यन्त, यानि सर्वदर्शनसंग्रहसर्वदर्शन शिरोमण्यादिनिवन्धेपु व्यक्लानि ॥ इत्यादि-इस प्रस्तावना का यह कथन है। कि-दर्शनों की संख्याविषय कई मत भेद हैं, और उनकी संख्या विद्वान
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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