SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ८१ ) एक ही पर्याय का वाची जो शब्द है; वही एक शब्द उस श्रभिधेय का वाची है, क्योंकि - विद्यमान भाव ही (ध्रुव) निश्चय से आत्मीय कार्य के करने वाला देखा जाता है । अतएव तद्रूप वही वस्तु है, अन्य नहीं तथा शास्त्र में स्वार्थक्रियाकारी वस्तु मानागया है । इस कारिका का सारांश केवल इतना ही है कि- एवंभूत नय केवल स्वार्थक्रियाकारी वस्तु को ही वस्तु मानता है, अन्य को नहीं अर्थात् जो अपने गुण में पूर्ण है वही वस्तु है, यही इस नय का तात्पर्य है । यदि कार्यमकुर्वाणोऽपीप्यते तत्तया स चेत् । तदा पटेऽपि न घटव्यपदेशः किमिष्यते ॥ १८ ॥ वृत्तिः -- यदि स पदार्थस्तदा तस्मिन् काले कार्यमकुर्वाणोऽपि स्वार्थक्रियामकुर्वन्नपि चेत् तत्तया वस्तुतया इष्यते अभ्युपगम्यते भवता ताईंपटेऽपि घटव्यपदेशो घटशब्दवाच्यता कथं नेप्यते कस्मान्नेच्छविषयीक्रियते । किमत्रापराधः यथा स्वार्थक्रियामकुर्वाणो घटो घटत्वव्यपदेशभाग् भवति तथा घटक्रियाऽभाववान् पटोऽपि घटो भवतु स्वकार्यकारणाभावस्योभयत्रापि समानत्वादित्यर्थः ॥ १८ ॥ अर्थ-यदि वह पदार्थ उस काल में कार्य न करता हुआ भी अर्थात् स्वार्थ क्रिया न करने पर भी उस वस्तु को वस्तुतया मानता है अर्थात् वस्तु के भाव को स्वीकृत किया जाता है तो फिर पट में भी घट शब्द की वाच्यता क्यों नहीं स्वीकार की जाती ? तथा क्यों उक्त पदार्थ को इच्छा विपयक नहीं किया जाता इस प्रकार मानने मे उक्त पदार्थ ने क्या अपराध किया है ? क्योंकि जिस प्रकार स्वार्थ क्रिया न करने पर भी घट घटत्व के व्यपदेश का भागी बनता है उसी प्रकार घट क्रिया का अभाव वाला पट भी घट होजावे कारण कि स्वकार्य के प्रभाव होने से दोनों को ही समान होने से पक्षसमसिद्ध हो जाता है इस कारिका का सारांश इतना ही है कि- जब घट स्वक्रिया के न करने पर भी घटत्व का भागी वन जाता है तो फिर ' aeroया के प्रभाव वाला पट भी स्वक्रिया के अभाव के सम होने से घट हो जाना चाहिए। कारण कि यथोत्तरविशुद्धा स्युर्नाके सप्ता प्यमी तथा । एकः स्याच्छतं भेदस्ततः सप्तशताश्रमी ॥ १६॥ वृत्तिः - श्रमी साक्षादुक्ल पूर्वाः सप्तापि सप्तसंख्याका श्रपि समुच्चयार्थः । नया यथोत्तरविशुद्धा यथा २ उत्तरा उपर्युपरि वर्त्तन्ते तथा २ विशुद्धा येऽन्ते यथोत्तरविशुद्धाः स्युर्भवन्ति । तथा एकैकः एकश्च एकश्च एकैको नयः शतं शतप्रमाणं भेदः प्रकारतः स्याद्भवति । ततो अमी नयाः सप्त इति संख्या
SR No.010277
Book TitleJain Tattva Kalika Vikas Purvarddha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages335
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy