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________________ जैन पूजांजलि [८५ अचेतन द्रव्य जड़ संयोग सुख दुख के नहीं दाता। संयोगी भाव करके तू स्वयं दुखवान होता है ।। सेही चिह्न चरण में शोभित श्री अनंत प्रभु पद उर धार । मन वच तम जो ध्यान लगाते हो जाते भव सागर पार ॥ ४ इत्यार्शीवादः ४ जाप्य- ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथ जिनेन्द्राय नमः । - - श्री शान्तिनाथ पूजन शान्ति जिनेश्वर हे परमेश्वर परम शान्त मुद्रा अभिराम । पञ्चम चक्री शान्ति सिन्धु सोलहवें तीर्थङ्कर सुखधाम ॥ निजानन्द में लीन शान्ति नायक जग गुरु निश्चल निष्काम । श्री जिन दर्शन पूजन अर्चन वंदन नित प्रति करूं प्रणाम ॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् । जल स्वभाव शीतल मलहारी आत्म स्वभाव शुद्ध निर्मल । जन्म मरण मिट जाये प्रभु जब जागे निज स्वभाव का बल । परम शान्तिसुखदायक शान्तिविधायक शान्तिनाथ भगवान । शाश्वत सुख की मुझे प्राप्ति होश्री जिनवर दो यह वरदान ॥ ___ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिने द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । शीतल चन्दन गुण सुगन्धमय निज स्वभाव अति हो शीतल। पर विभाव का ताप मिटाता निज स्वरूप का अन्तर्बल ॥परम ० ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय संसार ताप विनाशनाय चन्दनम् निर्वपामीति स्वाहा । भव अटवी से निकल न पाया पर पदार्थ में अटका मन । यह संसार पार करने का निज स्वभाव हो है साधन ॥ परम० ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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