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________________ ५६] जैन पूजांजलि भेदज्ञान के बिना न मिलता मिथ्या भ्रम का अंतरे । भेदज्ञान से सिद्ध हुए हैं जीव अनंतानंतरे ॥ वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारूगा । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी पोर निहारूंगा। ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अय॑म् नि । जयमाला भव्य दिगम्बर जिन प्रतिमा नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी। जिन दर्शन पूजन अघ नाशक भव भव में कल्याणमयी ॥ वृषभदेव के चरण पखालं मिथ्या तिमिर विनाश करू। अजित नाथ पद वन्दन करके पंच पाप मल नाश करूं॥ सम्भवजिन का दर्शन करके सम्यक दर्शन प्राप्त करूं। अभिनन्दन प्रभु पद अर्चन कर सम्यक् ज्ञान प्रकाश करू॥ सुमति नाथ का सुमिरण करके सम्यक् चारित हृदय धरूं। श्री पद्म प्रभु का पूजन कर रत्नत्रय का वरण करूं ॥ श्री सुपाश्वं को स्तुति करके मोह ममत्व प्रभाव करूं। चन्दा प्रभु के चरण चित्त धर चार कषाय कुभाव हरू। पुष्पदन्त के पद कमलों में बारम्बार प्रणाम करू । शीतल जिनका सुयश गान कर शाश्वत शीतल धाम बरूं। प्रभु श्रेयांस नाथ को बन्द श्रेयस पद की प्राप्ति करू । वास पूज्य के चरण पूज कर मैं अनादि को भ्रान्ति हरू। विमल जिनेश मोक्ष पद दाता पंच महाव्रत ग्रहण करूं। श्री अनन्त प्रभु के पद वन्दू पर परणति का हरण करूं ॥ धर्मनाथ पद मस्तक धर कर निज स्वरूप का ध्यान करूं। शान्तिनाथ को शान्त मूति लख परमशान्त रस पान करूं। कुन्थनाथ को नमस्कार कर शुद्ध स्वरूप प्रकाश करू । अरहनाथ प्रभु सर्वदोष हर अष्ट कर्म अरि नाश कह।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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