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________________ ५४ ] जैन पूजांजलि जो चारित्र भ्रष्ट है वह तो एक दिवस तर सकता है । पर श्रद्धा से भ्रष्ट कभी भव पार नहीं कर सकता है | रत्नत्रय को वन्दन करके शुद्धात्म का ध्यान करूं । सम्यक् दर्शन ज्ञान चरित से परम स्वपद निर्वाण वरूं ॥ ॐ ह्रीं सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र मयीं रत्नत्राय पूर्णाम् निर्वपामीति स्वाहा । रत्नत्रय व्रत श्रेष्ठ की महिमा अगम जो व्रत को धारण करे हो जाये भव ॥ इत्याशीर्वादः ॥ जाण्य अपार । पार ॥ ॐ ह्रीं सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्रभ्यो नमः | ¤ श्री वर्तमान चौबीसी पूजन भरत क्षेत्र को वर्तमान जिन चोबीसी को करूं नमन । वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर के पद पंकज में वन्दन ॥ भक्ति भाव से नमस्कार कर विनय सहित करता पूजन । भव सागर से पार करो प्रभु यही प्रार्थना है भगवन || ॐ ह्रीं श्री वृपभादि महावीर पर्यन्त चतुविशति जिन समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री वृपभादि महावीर पर्यन्त चतुविशति जिन समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुविंशति जिन समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । श्रात्म ज्ञान वैभव के जल से यह भव तृषा बुझाऊँगा । जन्म जरा हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊंगा ॥ वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पर द्रव्यों से दृष्टि हटाकर अपनी ओर ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरांतेम्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । पखारूंगा । निहारूंगा ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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