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________________ ५२] जन पूर्जाजनि केवल निज परमात्म तत्त्व की श्रद्धा ही कर्तव्य है। आत्म तत्व श्रद्धानी का ही तो उज्जवल भवितव्य है ।। अवधि जान त्रय देशावधि परमावधि सविधि जानों। भव प्रत्यय के तीन और गुण प्रत्यय के छह पहिचानों ॥ मनःपर्यय ऋजुमति विपुलमति उपचार अपेक्षा से जानों। नय प्रमाण से जान ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष पृथक् मानों॥ जय जय सम्यक् ज्ञान अष्ट अङ्गों से युक्त मोक्ष सुखकार। तीन लोक में विमल ज्ञान को गूज रही है जय जयकार । ___ॐ ह्रीं सम्यक् ज्ञानाय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि० स्वाहा। सम्यक चारित्र निज स्वरूप में रमण सुनिश्चय दो प्रकार चारित व्यवहार। श्रावक त्रेपन क्रिया साधु का तेरह विधि चारित्र अपार ।। पंच उदम्बर त्रय मकार तज, जीव दया निशि भोजन त्याग। देव वन्दना जल गालन निशि भोजी त्यागी श्रावक ज्ञान । दर्शन ज्ञान चरित्रमयो ये वेपन क्रिया सरल पहिचान । पाक्षिक नैष्ठिक साधक तीनों, श्रावक के हैं भेद प्रधान ॥ परम अहिंसा षट कायक के जीवों की रक्षा करना। परम सत्य है हित मित प्रिय वच सरल सत्य उर में धरना॥ परम प्रचौर्य, बिना पूछे तृण तक भी नहीं ग्रहण करना । पंच महावत यही साधु के पूर्ण देश पालन करना ॥ ईर्या समिति सु प्रासुक भू पर चार हाथ मू लख चलना। भाषा समिति चार विकथाओं से विहीन भाषण करना । श्रेष्ठ ऐषणा समिति अनुद्देषिक माहार शुद्धि करना । है आदान निक्षेपण संयम के उपकरण देख धरना ॥ प्रतिष्ठापना समिति देह के मल मू देख त्याग करना । पंच समिति पालन कर अपने राग द्वेष को क्षय करना ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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