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________________ ३६] जैन पूर्णांजलि वीतराग विज्ञान ज्ञान का रस पीलो तत्काल । पाप पुण्य शुभ अशुभ आश्रव के हर डालो जाल ।। ॐ ह्रीं धातकी खण्ड पश्चिम दिशा अचल मेरु सम्बन्धी पोडश जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्धम् नि० स्वाहा । पुष्करार्ध की पूर्व दिशा में मन्दिर मेरु महासुखमय । विजय मेरु सम इसकी रचना सोलह चैत्यालय जय जय ॥ चन्द्र सूर्य सम कान्ति सहित हैं रत्नमयी प्रतिमा से युक्त । दस प्रकार के कल्पवृक्ष की मालाओं से है संयुक्त ॥ चारों... ॐ ह्रीं पुष्करार्ध पूर्व दिशा मन्दिर मेरु सम्वन्धी षोडश जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्धम् नि० स्वाहा पुष्करार्ध की पश्चिम दिशि में विद्युन्माली मेरु महान । विजय मेरु सम ही रचना है सोलह चैत्यालय छविमान । सुर विद्याधर असुर सदा हो पूजन करने आते हैं । चारण ऋद्धि धारि मुनि भी दर्शन को आते जाते हैं । चारों... ॐ ह्रीं पुष्करार्ध पश्चिम दिशा विद्युन्माली मेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्धम् नि० स्वाहा | जयमाला एक लाख योजन का जम्बूदीप लोक के मध्य प्रधान । चार लाख योजन का सुन्दर द्वीप धातकी खण्ड महान ॥ सोलह लाख सु योजन का है पुष्कर दीप अपूर्व ललाम । इनमें पंचमेरु हैं अनुपम परम सुहविन है शुभ नाम ॥ सतत प्रणाम । धाम ॥ सूर्य चन्द्र देते प्रदक्षिणा करते निशदिन एक मेरु सम्बन्धी सोलह पंचमेरु अस्सी जिन एक शतक श्ररु अर्ध शतक योजन लम्बे चौड़े जिन धाम । पौन शतक योजन ऊंचे हैं बने प्रकृत्रिम भव्य ललाम ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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