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________________ जैन पूजांजलि वीतराग प्रभु की उपासना भव वासना मिटाती है । विषय भोग भौतिक सुख की याचना सदा भटकाती है ॥ पूर्ण शुद्धि होगी निजात्म में तब ज्ञानानन्दो गुण अनन्तमय स्वयं ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धियादि षोडश कारणेभ्यो सोलह कारण भावना हरे जगत तीर्थंकर पद प्राप्त कर करो सदा आनन्द ॥ दुख द्वन्द । होगा सिद्ध जाप्य [३३ निर्वाण रे । भगवान रे ॥ पूर्णार्धम् नि० स्वाहा । इत्यार्शीवाद : ¤ ॐ ह्रीं श्री षोडश कारण भावनाभ्यो नमः pox श्री पंचमेरु पूजन मध्यलोक में ढाई द्वीप के पंचमेरु को करूँ प्रणाम । मेरु सुदर्शन विजय, प्रचल, मन्दिर, विद्युन्माली श्रभिराम ॥ मेरु सुदर्शन एक लाख योजन ऊँचा है महिमावान । शेष मेरु योजन चौरासी सहस्र उच्च हैं दिव्य महान ॥ पांचों मेरु श्रनादि निधन हैं स्वर्णमयी सुन्दर सुविशाल । इन पर अस्सी जिन चैत्यालय वन्दू सदा झुकाऊ भाल ॥ इनका पूजन वन्दन करके मैं अनादि अघ तिमिर हरु । मन वच काया शुद्धिपूर्वक श्री जिनवर को नमन करूं ॥ ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः । ॐ ह्रीं पंचमेरु सम्बन्धी जिन चैत्यालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव बषट् । यह अथाह भव सागर जल पीकर भी तृषा न शान्त हुई । जन्म मरण के चक्कर में पड़कर मेरी मति भ्रान्त हुई ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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