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________________ जन पूजांजलि [१९१ जो वीत गई सो बीत गई जो शेष रही उसको संभाल । भव भोग देह से हो उदास पाले सम्यक्त्व पग्म विशाल ॥ हे प्रभु मुझको विमल ज्ञान दो सम्यक् पथ पर आ जाऊँ । रत्नत्रय की धर्मनाव चढ़ भव सागर से तर जाऊं ॥ सम्यक् दर्शन प्रष्ट अंगसह अष्ट भेद सह सम्यक् ज्ञान । तेरह विध चारित्र धारलं द्वादश तप भावना प्रधान । हे जिनवर आशीर्वाद दो निज स्वरूप में रमजाऊँ । निज स्वभाव अवलंबन द्वारा शाश्वत निज पद प्रगटाऊं ॥ ॐ ह्री भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थङ्कुरेभ्यो पूर्णाय॑म् नि । तीन काल को त्रय चौबीसी की महिमा है अपरम्पार । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते भव से पार ।। इत्याशीर्वादः जाप्य- ॐ ह्रीं श्री भूत भविष्य वर्तमान कालीन तीर्थङ्करेभ्यो नमः। - x श्री इन्द्र ध्वज पूजन मध्य लोक में चार शतक अट्ठावन जिन चैत्यालय हैं। तेरह द्वीपों में अकीर्तम पावन पूज्य जिनालय हैं। सर्व इन्द्र, इन्द्रध्वज पूजन करते बहु वैभव के साथ । हर मंदिर पर ध्वजा चढ़ाते झुका त्रियोग पूर्वक माथ ॥ मै भी अष्ट द्रव्य ले स्वामी भक्ति सहित करता पूजन । निज भावों को ध्वजा चढ़ाऊं, मिटे पंच प्रत्यावर्तन ॥ ॐ ह्रीं मध्य लोक तेरहद्वीप संबधी चार सौ अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनविम्ब समह अत्र अवतर अवतर संवोपट । ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरह द्वीप सबंधीं चार सो अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्ब समूह अत्र तिष्ठ तिप्ठ ठः ठः स्थापनम् । ___ॐ ह्री मध्यलोक तेरह दीप संबंधी चार सौ अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्ब समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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