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________________ जन पूजांजलि वीतरागी का स्पर्श करते ही रागादि भाव नष्ट हो जाते हैं। प्रायु कर्म के बंध उदय में सदा उलझता प्राया हूँ। चारों गतियों में डोला हूं निज को ज.न न पाया हूँ ॥ अजर अमर अविनाशी पद हित प्राय कर्म का करू शमन ।देव.।। ॐ ह्रीं श्री देव शास्र गुरुभ्यो आयु कर्म विनाशनाय नैवेद्यम् नि । नाम धर्म के कारण मैंने जैसा भी शरीर पाया। उस शरीर को अपना समझा निव चेतन को विसराया ॥ ज्ञान दीप के चिर प्रकाश से नाम कर्म कह दमन । देव शास्त्र गुरु के चरणों का बारम्बार कह पूजन ॥ ॐ ह्री श्री देव शास्र गुरुभ्यो नाम कर्म विनाशनाय दीपम् नि० । उच्च नीच कुल मिला बहुत पर निज कुल जान नहीं पाया। शुद्ध बुद्ध चैतन्य निरंजन सिद्ध स्वरूप न उर भाया । गोत्र कर्म का धूम्र उड़ाऊं निज परणति में कह रमण।देव शास्त्र. ॐ ह्री देव शास्र गुरुभ्यो गोत्र कर्म विनाशनाय धूपम् नि० । दान लाभ भोगोपभोग बल मिलने में जो बाधक है। अन्तराय के सर्वनाश का आत्मज्ञान ही साधक है ॥ दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख पाऊ निज पाराधक बन देव शास्त्र. ॐ ह्रीं देव शास्त्र गुरुभ्यो अन्तराय कर्म विनाशनाय फलम् नि । कर्मोदय में मोह रोष से करता है शुभ अशुभ विभाव । पर में इष्ट अनिष्ट कल्पना रागद्वेष विकारी भाव ।। भाव कम करता जाता है जीव मूल निज प्रात्मस्वभाव । द्रव्यकर्म बंधते हैं तत्मण शाश्वत सुख का करें प्रभाव ॥ चार घातिया चउ प्रघातिया प्रष्टकर्म का करूं हनन । देव शास्त्र गुरु के चरणों का बारम्बार करू पूजन ॥ ॐ ह्री देव शास्त्र गरुभ्यो सम्पूर्ण अष्टकर्म विनाशनाय अर्घम् निः । - x
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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