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________________ जैन पूजांजलि [१७७ परम ब्रम्ह हूँ परम तत्त्व हूँ परम ज्योतिमय परम स्वरूप । परम घ्यानमय परम ज्ञानमय परम शांतिमय परम अनूप ।। परम भाव नैवेद्य प्राप्त कर भुधा व्याधि का ह्रास कह। पंचाचार प्राचरण करके परम तृप्त शिव वास करूं ॥ पंच० ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्व साधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि। परम भाव मय दिव्य ज्योति से पूर्ण मोह का नाश करूं। पाप पुण्य आश्रय विनाश कर केवल ज्ञान प्रकाश करूं ॥पंच० ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो मोहांधकार विनाशनाय दीपम् नि। परम भाव मय शुक्ल ध्यान से प्रष्ट कर्म का नाश करूं। नित्य निरंजन शिव पद पाऊँ सिद्ध स्वरूप विकास करू ॥पंच० ___ ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाध जिनवाणी, जनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो अष्ट कर्म दहनाय घूपम् नि० । परम भाव संपत्ति प्राप्त कर मोक्ष भवन में वास करूं। रत्नत्रय फल मुक्ति शिला पर सादि अनंत निवास कम्॥पंच० ॐ ह्रीं श्री अहं त सिद्ध आचायोपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी, जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फलम् नि । परम भाव के अर्घ चढ़ाऊँ उर अनर्घ पद व्याप्त कह। भेद ज्ञान रवि हृदय नगाकर शाश्वत जीवन प्राप्त करूं। पंच परम परमेष्ठी जिन श्रुत जिनगृह जिन प्रतिमा जिन धर्म। नवदेवों की पूजन करके मैं बन जाऊँ प्रभु निष्कर्म ॥ ॐ ह्रीं श्री अहं त सिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी,जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्यम नि० । जयमाला नवदेवों को नमन कर कह आत्म कल्याण । शाश्वत सुख की प्राप्ति हित कह भेव विमान ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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