SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जन पूजांजलि [१७५ जब तक दृष्टि निमित्तों पर है भव दुख कभी न जाएगा। उपादान जाग्रत होते ही सब सकट टल जाएगा । ---- ----- इस पूजन का सम्यक् फल प्रभु मुझको पाप प्रदान करो अब। केवल ज्ञान सूर्य की पावन किरणों का प्रभु दान करो अब ।। क्रोध मान माया लोभादिक सर्व कषाय विनष्ट करूं मैं । वीतराग निज पद प्रगटा भव बंधन के कष्ट हरू मैं ॥ स्वर्गादिक की नहीं कामना भौतिक सुख से नहीं प्रयोजन । एक मात्र ज्ञायक स्वभाव निज काही प्राश्रय लूहे भगवन । विषय भोग की अभिलाषाएं पलक मारते चूर करू मैं । शाबत निज प्रखंड पद पाऊँ पर भावों को दूर करूं मैं॥ मिथ्यात्वादिक पाप नष्ट कर सम्यक् दर्शन को प्रगटाऊ॥ सम्यक् ज्ञान चरित्र शक्ति से घाति अघाति कर्म विघटाऊँ। ॐ ह्रीं श्री वृषभ देव जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय पूर्णाय॑म् नि० । भक्तामर स्तोत्र की महिमा अगम अपार । भाव भासना जो करें हो जाएं भव पार ।। इत्यार्शीर्वादः जाप्य-ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं अर्ह श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय नमः श्री नव देव पूजन श्री अरहंत सिद्ध, आचार्योपाध्याय, मनि, साधु महान । जिनवाणी, जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्म, देव नव जान ।। ये नवदेव परम हितकारी रत्नत्रय के दाता हैं । विघ्न विनाशक संकटहर्ता तीन लोक विख्याता हैं । जल फलादि वसु द्रव्य सजाकर हे प्रभु नित्य करू पूजन । मङ्गलोत्तम शरण प्राप्त कर मैं पाऊं सम्यक् दर्शन ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy