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________________ १५६] जन पूजांजलि "अप्पा सो परमप्पा" जिनके उर में भाव समाया । पर पदार्थ से निमिष मात्र में उसने राग हटाया ।। शुद्ध स्वानुभव दिव्य अर्घ ले रत्नत्रय सु पूर्ण कर लूं। भव समुद्र को पार कर प्रभु निज अनर्घ पद मैं वर लू॥ श्रुत पंचमी पर्व शुभ उत्तम जिन श्रुत को वन्दन कर लूं। षट् खण्डागम धवल जयधवल महाधवल पूजन कर लू॥ ॐ ह्रीं श्री परम श्रु त षट खण्डागमाय अनर्घ पद प्राप्तये अर्घम् नि । 8 जयमाला : श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का । गूंजा जय जयकार जगत् में जिन श्रुत जय जयकार का। ऋषभदेव की दिव्य ध्वनि का लाभ पूर्ण मिलता रहा। महावीर तक जिन वाणी का विमल वृक्ष खिलता रहा ॥ हुए केवली प्ररुथ तकेवलि ज्ञान अमर फलता रहा । फिर प्राचार्यों के द्वारा यह ज्ञान दीप जलता रहा ॥ भव्यों में अनुराग जगाता मुक्ति वधू के प्यार का । श्रत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥ गुरु परम्परा से जिनवाणी निर्झर सी भरती रही । मुमक्षत्रों को परम मोक्ष का पथ प्रशस्त करती रही । किन्तु काल की घड़ी मनुज को स्मरण शक्ति हरती रही। श्री धरसेनाचार्य हृदय में करुण टोस भरती रही । द्वादशांग का लोप हुआ तो क्या होगा संसार का । श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥ शिष्य भूतवलि पुष्पदन्त को हुई परीक्षा ज्ञान की । जिनवाणी लिपिबद्ध हेतु श्रुत विद्या विमल प्रदान को ॥ ताड़ पत्र पर हुई अवतरित वाणी जन कल्याण की । षट्सण्डागम महा ग्रन्थ करुणानुयोग जय ज्ञान की ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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