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________________ जैन पूजांजलि [१२६ प्राण मेरे तरसते हैं कब मुझे समकित मिलेगा। कब स्वयं से प्रीत होगी कब मुझे निज पद मिलेगा। समयसार के भाव को जो लेते उर धार । निज अनुभव को प्राप्त कर हो जाते भव पार॥ x इत्याशीर्वादः जाप्य- ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय नमः । श्री कुन्द कुन्द आचार्य पूजन कुन्द कुन्द प्राचार्य देव के चरण कमल मैं करूं नमन । कुन्द कुन्द प्राचार्य देव की वाणी के उर धरू सुमन । कुन्द कुन्द आचार्य देव को भाव सहित करके पूजन । निज स्वभाव के साधन द्वारा मोक्ष प्राप्ति का करूं यतन ॥ १ "परिणामो बंधो परिणामो मोक्खो" करू आत्म दर्शन। सिद्ध स्वपद को प्राप्ति हेतु मैं निज स्वरूप में करूं रमन ॥ __ ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देव चरणाग्रेषु पुष्पाञजलि क्षिपामि। समयसार वैभव के जल से उर में उज्ज्वलता लाऊँ । २ "दंसरण मूलो धम्मो" सम्यक् वर्शन निज में प्रगटाऊँ ॥ कुन्द कुन्द प्राचार्य देव के चरण पूज निज को ध्याऊँ। सब सिद्धों को वन्दन कर ध्रुव अचल सु अनुपम गति पाऊँ । ___ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा। समयसार वैभव चन्दन से निज सुगन्ध को विकसाऊ । ३ "वत्थु सहावो धम्मो" सम्यक् ज्ञान सूर्य को प्रगटाऊँ। कुन्द० ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्य देवाय संसार ताप विनाशनाय चन्दननि०। (१) .. . परिणामों से बन्ध और परिणामों से मोक्ष होता है । (२) अष्ट. पा. २- धर्म का मूल सम्यक् दर्शन है। (३) . . वस्तु स्वभाव ही धर्म है ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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