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________________ जैन पूजांजलि [११५ अपनी शुद्धात्मा को तो माना नहीं । पुण्य के गोत ही गुनगुनाते रहे ॥ अति हषित हो इन्द्र हृदय में बोला स्वामी प्रभी चलें। शङ्काओं का समाधान कर मेरे मन की शल्य दलें ॥ अग्निभूति अरु वायुभूति दोनों भ्राता सङ्ग लिये जभी। शिष्य पाँच सौ सङ्ग ले गौतम साभिमान चल दिये तभी॥ समवशरण की सीमा में जाते ही हुमा गलित अभिमान । प्रभु दर्शन करते हो पाया सम्यक् दर्शन सम्यक् ज्ञान ॥ तत्क्षण सम्यक् चारित धारा मुनि बन गणधर पद पाया। प्रष्ट ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ज्ञान मनःपर्यय छाया । खिरने लगी दिव्य ध्वनि प्रभु की परम हर्ष उर में आया। कर्म नाश कर मोक्ष प्राप्ति का यह अपूर्व अवसर पाया। प्रोंकार ध्वनि मेघ गर्जना सम होती है गुणशाली। द्वादशांग वाणी तुमने प्रतमुहूर्त में रच डाली ॥ दोनों भ्राता शिष्य पाँच सौ ने मिथ्यात तभी हर कर । हर्षित हो जिन दीक्षा ले ली दोनों भ्रात हुए गणधर ॥ राजगृही के विपुलाचल पर प्रथम देशना मङ्गलमय । महावीर सन्देश विश्व ने सुना शाश्वत शिव सुखमय ॥ इन्द्रभूति, श्री अग्निभूति, श्री वायुभूति, शुचिदत्त, महान् । श्री सुधर्म, मांडव्य, मौर्यसुत, श्री अकम्य, अति ही विद्वान् ॥ अचल और मेदार्य प्रभास यही ग्यारह गणधर गुरणवान् । महावीर के प्रथम शिष्य तुम हुए मुख्य गणधर भगवान् ।। छह छह घड़ी दिव्यध्वनि खिरती चार समय नित मङ्गलमय । वस्तु तत्त्व उपदेश प्राप्त कर भव्य जीव होते निजमय ॥ तीस वर्ष रह समवशरण में गूंथा श्री जिनवाणी को। देश देश में कर विहार फैलाया श्री जिनवाणी को॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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