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________________ १०६] जैन पूजिलि जब निज स्वभाव परिणित की धारा अजस्र बहती है। अन्तर्मन में सिद्धों की पावन गरिमा रहती है। छहखंडों पर शासन करते करते जग अनित्य पाया। भव तन भोगों से विरक्तिमय उर वैराग्य उमड़ पाया ॥ पंच महावत धारण करके निज स्वभाव में हुए मगन । पा कैवल्य श्री सम्मेद शिखर से पाया मुक्ति गगन । ॐ ह्रीं श्री अरनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण पंच ___ कल्याण प्राप्ताय अर्घम् नि० स्वाहा। ४ जयमाला शान्ति कुन्थु अरनाथ जिनेश्वर के चरणों में नित वन्दन । विमल ज्ञान आशीर्वाद दो काट सकू मैं भव बन्धन ॥ सम्यक् दर्शन ज्ञान चरितमय लिया पंथ निर्ग्रन्थ महान । सोलह वर्ष रहे छद्मस्थ अवस्था में तीनों भगवान ॥ परम, तपस्वी परम संयमी मौनी महावती जिनराज । निज स्वभाव के साधन द्वारा पाया तुमने निज पद राज ।। शुक्ल ध्यान के द्वारा स्वामी पाया तुमने केवल ज्ञान । दे उपदेश भव्य जीवों को किया सकल जग का कल्याण ॥ मैं अनादि से दुखिया व्याकुल मेरे संकट दूर करो। पाप ताप संताप लोभ भय मोह क्षोभ चकचूर करो॥ सम्यक् दर्शन प्राप्त करू मैं निज परिणति में रमण करूं। रत्नत्रय का प्रवलम्बन ले मोक्ष मार्ग को ग्रहण करू । वीतराग विज्ञान ज्ञान को महिमा उर में छा जाए। भेद ज्ञान हो निज आश्रय से शुद्ध प्रात्मा दर्शाए । यही विनय है यही भावना विषय कषाय अभाव करू। तुम समान मुनि वन हे स्वामी निज चैतन्य स्वभाव बरू॥ ॐ ह्रीं श्री शांति कुन्थु अरनाथ जिन चरणाग्रेषु महाअय॑म् नि० ।
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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