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________________ जैन पूजांजलि जो स्वरूप वेत्ता होता है, वही भावभु त जल पीता है। सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को, जान अमर जीवन जीता है। हे प्रभु ! यह उपदेश प्रापका मैं निज अन्तर में लाऊ । प्रात्म बोध को महाशक्ति से मैं निर्वाण स्वपद पाऊँ ॥ अष्ट कर्म को नष्ट करूं मैं तुम समान प्रभु बन जाऊं। सिद्ध शिला पर सदा विराजू निज स्वभाव में मुस्काऊँ। इसी भावना से प्रेरित हो हे प्रभु ! की है यह पूजन । तुव प्रसाद से एक दिवस मैं पा जाऊंगा मुक्ति सदन । ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण कल्याणक प्राप्ताय पूर्णाय॑म् निर्वगमोति स्वाहा । सर्प चिह्न शोभित चरण पार्श्वनाथ उर धार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ।। 8 इत्याशीर्वादः ४ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नमः । जाप्य श्री वर्धमान जिन पूजन वर्धमान सन्मति सुवीर प्रभु, महावीर मंगलदाता । वर्तमान चौबीसी के, प्रतिम तीर्थङ्कर विख्याता ॥ वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर, त्रिभुवनपति भव दुख पाता। महामोक्ष कल्याण प्रदायक जगदुद्धारक जग त्राता ॥ ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौष्ट । ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री वर्धमान जिन न्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । नित चरण चढ़ाऊं देव निर्मल जल धारा । रागादिक मल का नाश मैं करदं सारा ॥
SR No.010274
Book TitleJain Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya Kavivar
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages223
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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